Sunday, 2 April 2017

ट्रैन वाली लड़की

डिस्क्लेमर: यह लघुकथा पूर्णतः मेरी कल्पनाओ के परिंदों की उड़ान का परिणाम है।इसका किसी जीवित इंसान, पशु, पक्षी, भूत, प्रेत आदि से कोई सरोकार नही है। एक और बात, यह कथा किसी घटना, किताब, फ़िल्म या किसी और की रचना से प्रेरित भी नही है, अगर ऐसा हुआ तो यह मात्र एक संयोग होगा।
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मैं और शिखा आज बड़े दिनों बाद ट्रैन के स्लीपर कोच में एक साथ उर्दू वाला सफ़र कर रहे है। वैसे तो बीते कुछ वर्षो  में एक दूसरे के साथ अंग्रेजी वाला ही सफर किया है हमने। शायद यह आखिरी बार हो की हम साथ हो।
जी हाँ मैं उसे उसके घर छोड़ने जा रहा हूँ, हमेशा के लिए। आखिर कब तक सहेगी वो और मैं भी। बीते वर्षो में हमारा  रिश्ता गरम चाय से कोल्ड कॉफी में बदल चूका है। कहने सुनने को अब सिर्फ ताने और गालियां ही है।

शिखा विंडो सीट पर बैठी है और उसके सामने बीच वाली सीट पर मैं । वो खिड़की से बाहर अपनी सूजी आँखों से टकटकी लगाये देखे जा रही है और में उसे। उसे देखकर लगा की कहीं फिर से दिल की कार्यवाही शुरू न हो जाये। कहीं फिर से भावनाओ के वो अंगारे दहक न उठे जिनकी अग्नि में हमने फेरे लिए थे। अपने बुझे हुए रिश्ते के महक उठने का डर नहीं था मुझे । डर यह था की कहीं फिर से इस रिश्ते को संभाल पाने में नाकाम रहा तो ?

ट्रैन चल पड़ी थी मुझे शिखा के चेहरे की सिवाए न कुछ दिख रहा था और न कुछ सुनायी दे रहा था। इस ट्रैन की यात्रा से ६ साल पहले वाली एक ट्रैन यात्रा याद आ गयी। ६ साल पहले जब मुस्कराहट मेरे करीब रहा करती थी और मैं  इसी मुस्कान को बांटने की कोशिश किया करता था। यह वो उम्र थी जब किसी इंसान का दिल किसी तितली की तरह उड़ा करता है।

 ६ साल पहले

विंडो सीट पर वो आलथी पालथी मार के  किसी  किताब में अपनी ऑंखें चश्मे सहित गड़ाए हुए बैठी थी ,  उसके पास एक अंकलजी टाइप के भाईसाब बैठे थे जो उससे काफी दूरी पर थे।  मैने  अपना बैग ऊपर वाली सीट पर फेंका और उन दोनों के बीच में जा धंसा। वैसे भी मेरी मिडिल बर्थ थी तो लॉजिकली मैं सही बैठा था। थोड़ी देर तक मैं अपनी मुंडी इधर उधर करके, अपनी आँखें मसलते हुए उसको ध्यान से देखने की (ताड़ने की) कोशिश  करता रहा और सफल भी हुआ । 
अब मैं अगर यहाँ  उसके रंग रूप और उसके पहनावे की चर्चा न करू तो आप लोगो को "इमेजिन" करने में बड़ी ही दिक्कतें आएँगी, आपको तो आदत पड़  चुकी है अंग्रेजी किताबें पढ़ पढ़ के, जब तक पूरा सीन "डिस्क्राईब" न करो तब तक आपको "इंटरेस्ट" आता ही नहीं ।  तो लीजिये सुनिए उसने चटख नीले कलर का टॉप पहना हुआ था , (राउंड नेक फुल्ली कवर्ड) जिसपर अंग्रेजी में कुछ लिखा था जो ठीक से  मैं पढ़ नहीं पाया (बिकॉज़ ऑफ़ ऑब्वियस रीज़न्स)  और एक सतरंगी सा ढीला ढाला  पायजामा पहना हुआ था। चेहरे की नक्काशी शायद खुद भगवान ने फ़ुरसत में  बैठ के करी थी। बाल उसके घुंगराले थे, जो ज्यादा लम्बे नहीं थे और खुले हुए थे और बार बार उसके चश्मे के आगे आ कर उसको परेशान कर रहे थे। चश्मे के अंदर बड़ी बड़ी गोल गोल आँखें थी जो किताब के पन्नो पर बड़ी तेज़ी से बाएं -दायें घूमे जा रही थी।  मन तो हो रहा था की अपने हाथो से ही उसकी लटो को उसी के कान के पीछे खोंस दू, परन्तु फिर जल्दी ही अहसास हो गया की मैं कौन हूँ, वो कौन है और हम कहाँ है। कईं बार आपको आपकी औकात बड़ी जल्दी और टाइम पर याद आ जाती है तो आप शरीफो की श्रेणी में आ जाते हो और अगर समय पर अपनी औकात याद न आये और कोई ओर याद दिलाये तो फिर आप  शरीफ नहीं रह जाते।

In short कहु तो जिंदगी में कभी किसी ट्रैन के स्लीपर कोच में ऐसी लड़की मैंने आज तक नहीं देखी थी जैसी वो थी, ऐसी लड़की के लिए हमारा एक मित्र "रुई की गुड़िया" की उपाधि दिया करता था, बस समझ लो रुई की गुड़िया जैसी ही थी वो। अब तो उसका चित्रण आपके मस्तिष्क में हो ही चूका होगा।



इससे कुछ ही देर पहले: 

मैं भागता दौड़ता हुआ प्लेटफॉर्म ६ पर खड़ी संपर्क क्रांति एक्सप्रेस के स्लीपर कोच S-5 में जैसे तैसे दाखिल हुआ ही सही की ट्रैन चल पड़ी, कुछ एकाध मिनट भी लेट होता तो या तो चलती ट्रैन में लटकना पड़ता या स्टेशन पर ही लटका रहता। मैं बैंगलोर से दिल्ली जा रहा हूँ, टिकिट मैने करवाया था जो वेटिंग २३ से खिसक के ४ पर आ गया था परन्तु  इसके आगे न बढ़ सका। और तत्काल में हमसे टिकिट आज तक बुक नहीं हुआ, IRCTC पर तत्काल में  टिकिट बुक करना बिलकुल वैसा है जैसे किसी स्वयंवर में राजकुमारी से ब्याहना या पहली ही बार में IIT के लिए चुन लिए जाना। मैं  वेटिंग टिकिट के साथ ही चढ़ गया और TTE का पीछा तब तक नहीं छोड़ा जब तक की उसने मुझे झुंझलाकर ही सही एक सीट दे दी। मेरी वेटिंग वाली टिकिट पर S6-10 लिख के एक गोला बनाया और ४७५ रुपये की एक रसीद फाड़ दी। ( एक्स्ट्रा रुपये भी लिए उसने बिना रसीद के जो मैं यहाँ आपको बताना नहीं चाहता, दिल्ली वाला हूँ न, भ्रष्टाचार ख़िलाफ़)

टिकिट में सीट कन्फर्म पाकर मुझे बिलकुल वैसा अहसास हुआ जैसे मैनेजमेंट कोटे में एक प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन मिलने पर हुआ था आज से ७ साल पहले।

मैं घूमता हुआ सीधा अपनी निर्धारित सीट पर पहुँचा तो अचानक से ट्रैन की बदबू एक अजीब सा सुकून देने वाली  खुशबू में बदल गयी।जिंदगी कुछ देर के लिए स्लो मोशन हो गयी। कम्पार्टमेंट की विंडो सीट पर वो आलथी पालथी मार के  किसी  किताब में अपनी ऑंखें चश्मे सहित गड़ाए हुए बैठी थी , उसके पास एक अंकलजी टाइप के भाई साब बैठे थे जो उससे काफी दूरी पर थे।  मैने  अपना बैग ऊपर वाली सीट पर फेंका और उन दोनों के बीच में जा धंसा। वैसे भी मेरी मिडिल बर्थ थी तो लॉजिकली मैं सही बैठा था। थोड़ी देर तक मैं अपनी मुंडी इधर उधर करके, अपनी आँखें मसलते हुए उसको ध्यान से देखने की (ताड़ने की) कोशिश  करता रहा और सफल भी हुआ।

नोवेम्बर का महीना था, शाम के ६ बज रहे थे और ट्रैन की खिड़की से अच्छी खासी ठंडी हवा आ रही थी, पर इन सब से बेखबर वो अपनी किताब को ऐसे पढ़े जा रही थी जैसे थोड़ी देर में TTE उसकी परीक्षा लेगा और वो  पास हो गयी तो उसका टिकिट अपग्रेड करके 1st AC कर देगा।
मैं भी इधर उधर देखता रहा और अपने मोबाइल से खेल करता बैठा रहा, इतने में खाने वाला आर्डर लेने आया तो पुरे कम्पार्टमेंट में मैं ही अभागा था जिसने ट्रैन के खाने का आर्डर दिया बाकी सब शायद अपना अपना खाना लेकर आये थे।
चलो, खाने वाले को देखकर ही सही, "रुई की गुड़िया" को याद तो आया की उसको भी भूख लग रही है। उसने अपने बैग में से डिब्बा निकाला और एक रोल किया हुआ पराठा लेकर खाने लगी, एक मिनट के लिए मेरी नाक, नज़र और दिमाग सिर्फ पराठे पर ही केंद्रित हो गए थे। खुशबू से मालूम पड़ रहा था की पराठे में आलू मटर की सब्जी और अचार का मसाला भरा हुआ था। उस पत्थर दिल ने "फॉर्मेलिटी" के लिए ही सही पर एक बार भी "ट्रैन एटिकेट्स" दिखाते हुए यह नहीं पूछा की "Would you like to Have it..?" . खैर जाने दो, मेरा भी शाही पनीर, दाल तड़का, जीरा राइस और तंदूरी रोटी आ चुके थे, हाँ हाँ वही ट्रैन वाला खाना जिसको मेने यह सब "इमॅजिन" करके जैसे तैसे खा लिया, बदले में मैंने भी किसी से नहीं पूछा "Would you like to have it..?.

रात के ९ बज चुके थे, ऊपर की बर्थ वाले अंकल ऊपर जाकर फ़ैल चुके थे, सामने भी अंकल आंटी जी चादर बिछा के, तकिये में हवा भर के गुड नाईट की तयारी कर चुके थे, सामने की मिडिल बर्थ उठाई जा चुकी थी और लगेज में चैन बाँधी जा चुकी थी। और इधर उसकी किताब अभी भी खत्म नहीं हुयी थी, भला कोई इतनी देर सतत कैसे पढ़ सकता है। इन सब के बीच मेरे फ़ोन की मैसेज बाजी चालू थी जो मैं रह रह कर "उससे" नज़रे चुराके किये जा रहा था ,
 ये मेसेज में अपनी छोटी बहन रिया को किये जा रहा था जो मेरी टांग खींचने में लगी थी।दर-असल हुआ ये की इस बार की छुट्टियों में घरवालो ने मेरे लिए कुछ ख़ास इंतेजाम करके रखा था। रिया उन्ही सब इंतजामो की पोल खोल रही थी। उसने मुझे बताया की कैसे मुझे बकरा बना कर शादी के लिए लड़की देखने ले जाया जायेगा।

यह उम्र कुछ ऐसी होती है की आदमी चाहता है की वो जिंदगी में कुछ तरक्की करे, कुछ नाम और बैंक-बैलेंस कमा ले, थोड़ा अपनी आज़ादी को खुलके जी ले और इसी समय घरवाले धर्मसंकट खड़ा कर देते है शादी जैसी बातें करके।

ठंडी बढ़ने लगी है, ट्रैन के पंखो को भी आराम दे दिया गया है और सारी खिड़कियों के शटर गिरा दिए है, सिवाए उसकी खिड़की के। उसने बहुत कोशिश करी खिड़की बंद करने की और फिर अंत में वो मकाम आ ही गया जिसका में बेसब्री से इन्तेजार कर रहा था।
                      -"can you please help me to shut this window ?"  उसने अपने गुलाब की पंखुड़ी जैसे होठो को पहली बार खोला और अपने मुख कमल से इतने सारे अंग्रेजी के शब्दो की अविरल धारा प्रवाहित कर दी की मुझे कुछ समझ नहीं आया। उसके अंग्रेजी शब्द मेरी समझ में बिलकुल नहीं आये इसलिए नहीं की मैं हिंदी माध्यम का विद्यार्थी रहा हूँ बलकि इस लिए की मुझे पहली बार "घिग्गी बंधना" मुहावरे का वास्तविक जीवन में अर्थ समझ आ रहा था। मैंने कुछ कहने के लिए मुँह खोला  किन्तु मेरे शब्द सरकारी अनुदान की तरह कहीं अटक  गए केवल मुँह  खुला रह गया। इससे पहले की मेरे खुले मुंह से लार टपकती उसने फिर कुछ कहा।

'एक्सक्यूज़ मी ? आप प्लीज् यह खिड़की बंद कर देंगे ?'
अबकी बार उसने थोड़ी जोर से बोला और हिंदी में भी बोला जो पूरा पूरा समझ में भी आया और मैंने हाँ में मुंडी हिला के खिड़की बंद करने का प्रयास किया, यह प्रयास मेने सनी देओल की  शैली में किया किन्तु KRK की शैली में असफल हुआ। आज ट्रैन की इस तुच्छ सी खिड़की ने जीवन का सबसे बड़ा पाठ पढ़ा दिया कि जिनके नसीब फूटे हो वो कितनी ही कोशिश कर ले उनसे न खिड़की बंद होनी है और न ही लड़की इम्प्रेस होनी है ।
दर-असल उस खिड़की की चिटकनी खराब थी जो लग ही नहीं रही थी सो काम ऐसे ही चलाना था।
अब हमारी बात शुरू होने को थी।

'let it be like that, let's enjoy AC in sleeper coach, आप को नींद आ रही हो तो बता दीजियेगा, सीट ऊपर कर लेना'  रुई की गुड़िया ने मेरी तरफ देख के कहा,  इस बार मेरे शब्द अटके नहीं और मैने कहा 'नहीं नहीं मुझे अभी नहीं सोना। वो क्या है की  जब तक की मैं  खुद सोना न चाहु, मुझे नींद नहीं आती, आपको सोना हो तो आप बता देना'
मैंने बड़ा ही अजीब और घटिया सा डाइलोग मारा था जिसका अहसास भी मुझे हो गया था।

'अरे वाह यह तो बड़ी अच्छी बात है की आप जब चाहो तब सो सकते है , It's great ability, you know ?'
मुझे समझ नहीं आया की तारीफ कर रही है या टांग खीच रही है , खैर जो भी हो मैंने हेहेहे हीही ही करके बात आयी गयी कर दीऔर बात आगे बढ़ाने के उद्देश्य से एक निहायती साधारण और गैरवाज़िब सवाल दाग दिया।

'आप दिल्ली जा रही हो ?'
"हाँ , और आप ?" (उसके मुँह से "आप" सुनके लग गया था की यह दिल्ली वाली तो नहीं है )
"मैं भी।"
"कुछ काम से या घर है आपका वहां ?" उसने यह सवाल पूछा जिसका जवाब ईमानदारी से दिया ही नहीं जा सकता था मैंने कहा की "हाँ दिल्ली में ही घर है मेरा, बस घरवालो से मिलने जा रहा हूँ, और आप ?"

"ओह्ह गुड, नहीं मैं तो यूँही फ्रेंड्स से मिलने जा रही हूँ और मेरी एक कज़िन भी रहती है वहां"

मैंने दिल्ली वाले टॉपिक को बदलने के लिए बैंगलोर का टॉपिक छेड़ा बिलकुल वैसे ही जैसे जॉब इंटरव्यू में आप कोशिश करते हो की  सवाल उसी टॉपिक के आसपास पूछे जाये जिस टॉपिक पर आप मुँह खोलकर फेंक सकते हो। मैंने पूछा की "बैंगलोर में आप क्या करती है ? आईटी में हो क्या ?"

"No no, I am not into IT, I am doing a course in journalism from Hyderabad, अभी छुट्टियों में बैंगलोर अपने घर गयी थी, अभी २ दिन दिल्ली में रहूंगी and then back to Hyderabad."

जब आपको कोई और प्रोफेशन का बंदा या बंदी मिल जाये तो आप अपने प्रोफेशन के बारे में सहूलियत से फेंक सकते हो ठीक वैसे ही जैसे नेता लोग अपने भाषणो में करते है।

कुछ देर हम यूँही एक दूसरे को अपने बारे में फेंकते रहे, कुछ रियलिटी तो कुछ फिक्शन और इतने में रात के १२ बज गए थे। अब मुझे जर्नलिज़्म की बातें स्कूल के लास्ट पीरियड वाले सब्जेक्ट जैसी लगने लगी थी परन्तु लास्ट लेक्चर में भी अगर टीचर इतनी खूबसूरत हो तो कौन कमबख्त चाहेगा की छुट्टी की घंटी बजे। लेकिन मेरी जिंदगी में ३ ही कमजोरियां है ,  खाना,सोना और लड़कियाँ और इनकी रेटिंग भी इसी क्रम में है। ज़ाहिर सी बात थी अब नींद आने को थी और मुझे सोने से कोई नहीं रोक सकता था। मैंने खिड़की बंद करने की एक और असफल कोशिश की। घर से निकलते वक़्त मैंने कुछ न्यूज़ पेपर्स अपने बैग में रखे थे यह सोच कर की अगर सीट न मिली तो कही भी यह पेपर्स बिछा के सो जाऊंगा। वही न्यूज़ पेपर्स काम आये और खिड़की को जैसे तैसे एयरटाइट पैक किया। लड़की के इम्प्रेस होने का तो पता नहीं पर खिड़की जरूर बंद हो गयी थी।

अभी मैंने अपनी मिडिल सीट उठा के सोने की तैयारी कर ली थी और अपनी "गुड नाईट" हो गयी थी। और वो भी अपने हिसाब से सो गयी थी।

सुबह उठे, गुड मॉर्निंग हुआ, चाय शाय  शेयरिंग हुयी और पूरा दिन गप्पे हांकने में और खाने पिने में बीत गया। हमने अपने नाम का आदान प्रदान भी किया। अगली सुबह गंतव्य याने दिल्ली के करीब पँहुच के जिंदगी में पहली बार लगा कि काश मंज़िल थोड़ी और दूर होती, काश के यह सफ़र यूँही उम्रभर चलता। खैर अब हम बिछड़ने को थे, उसकी आँखों को पढने की कोशिश कर ही रहा था की उसने गुड बाय बोल दिया और सरपट से भीड़ में न जाने कहाँ खो गयी।

मैं  भी अपने घर की और निकल गया। अजीब कीकश्मकश थी मुझे शादी के लिए लड़की देखने जाना था और में ट्रैन में ही उस अजनबी सी लड़की को दिल दे बैठा था , क्या यह वाकई में इश्क़ था या वो क्या कहते है अंग्रेजी में infatuation , समझ नहीं आ रहा था। वैसे जिस लड़की को देखने जाना था वो भी दिल्ली में नहीं कहीं और रहती है , यहाँ उसके मामा के यहाँ उसको बुलाया गया है।

अनमने मन से तैयार होकर निकल पड़ा पापा , मम्मी  और रिया के साथ लड़की देखने। रास्ते भर मुझे बस शिखा याने की ट्रैन वाली लड़की का ही ख़याल आता रहा।

लड़की वालो के यहाँ पहुँचे और लड़की के मामा मामी से सामना हुआ, कुछ देर मेरा इंटेरोगेशन करने के बाद उन्होंने आवाज़ लगायी शिखा बेटा  यहाँ आओ। और जैसे ही वो सामने आयी मेरे हलक से पानी सुख  गया, हाथ से रसगुल्ला छूट गया और न जाने कौन कौन से हार्मोन शरीर में मिक्स एंड मैच होके ऊधम मचाने लगे। जी हाँ, यह वही शिखा है जिसे हम ट्रैन में ही अपना दिल दे बैठे थे। उनका भी हाल कुछ ऐसा ही था।

बस फिर क्या था एक दो मुलाक़ातों में वो भी हम पर जां निसार कर बैठे और हमने शादी कर ली।


आज का दिन

शादी के ६ सालो में हम जिंदगी की आपाधापी में कहीं एक दूसरे से दूर से हो गए थे, काम का बोझ, शहर की दौड़ वाली दिनचर्या इंसानो को मशीन बना देती है। कईं दिनों के बाद, या सालो के बाद आज में शिखा को इतना गौर से देख रहा था, मुझे फिर से प्यार हो रहा था।  में शिखा से कितना कुछ कहना चाहता था -
शिखा, क्यों न हम एक कोशिश और करके देखे ? क्यों न हम फिर से प्यार में पड़ कर देखें ? क्यों न फिर से तुम "रुईं की गुड़िया" बन जाओ ? सब कुछ भुलाकर फिर से नयी शुरुआत करे ? खोल दो अपनी इन ज़ुल्फो को और मुझे सो जाने दो इनकी छाँव में, अपने नरम मुलायम हाथो से  छू कर मेरे इस पत्थर जैसे दिल को फिर धड़कना सीखा दो। प्लीज, एक बार फिर से अपनी कोमल मुस्कान से मेरे चेहरे पर मोती बिखरा दो। कितना कुछ माँगना चाहता हूँ तुमसे।






एकदम कोरी कल्पना को मैने पन्नो पर उतारने की एक छोटी कोशिश की है आशा है आपको पसंद आये। 

चित्र गूगल इमेज सर्च का परिणाम है , परंतु है बढ़िया।


Thursday, 4 August 2016

दिल्ली की सैर



भारत में लोग-बाग अपने फेवरेट सितारों से मिलने बम्बई जाते है, एक झलक पाने को घंटो हजारो की भीड़ में खड़े रहते है। कुछ बावले लोग तो चुपके से सितारों के घरो में घुस तक जाते है और आराम से घूम-घाम के सकुशल लौट भी आते है। अभी हाल ही में एक भाईसाब ने पुरे ९ घंटे अमिताभ बच्चन के घर में गुजारे वो भी बगैर किसी को भनक लगे।
जब मैंने ये ख़बर पढ़ी तो सोचा की क्यों न मैं भी अपने पसंदीदा मनोरंजक सितारों के दर्शन के लिए उनके घर में घुसपैठ करूँ ? बस यही सोच के मैंने प्लान बनाया दिल्ली सैर का। अजी हाँ मेरा मनोरंजन करने वाले सभी सितारे दिल्ली में ही रहते है।


तो भाईसाब हम पंहुचे दिल्ली और सबसे पहले घुसे अपने नंबर १ मनोरंजक सितारे के बैडरूम में। इस सुपरस्टार को लोग प्यार से पप्पू बुलाते है। ये एक बहुत बड़े खानदान के वारिस है। जैसे ही छुपते -छुपाते इनके घर में दाखिल हुए तो हमने देखा की कमरे के एक कोने में कुछ बुझी हुयी चिलम पड़ी थी, सेंटर टेबल पर कुछ क्रेडिट कार्ड्स और कोई सफ़ेद पाउडर बिखरा पड़ा था टीवी पर फुल वॉल्यूम में डोरीमोन का कार्टून चल रहा था, थोड़ा और नज़र को इधर उधर दौड़ाया तो पाया की ये जनाब अपने पुरे घर में फ़ोन लेकर दौड़ लगा रहे थे। थोड़ा और नज़दीक से जानने की कोशिश की तो हमने पाया की ये तो पोकेमोन-गो नामक मोबाइल गेम खेल रहे थे वो भी घर के अंदर क्योंकि मम्मी ने बाहर जाने से मना किया है। बड़ा अच्छा लगा इन्हें इतना नज़दीक से देखकर। जैसे बाल-गोपाल की कलाएं देखकर गोकुलवासियों का मन मोहित होता होगा बिलकुल वैसे ही हम बाबा को देखकर मोहित होते रहे।

वहाँ से निकल कर फिर हम घुसे ७-रेसकोर्स रोड वाले बंगले में, यकीन मानिये बड़ी आराम से घुस गए यहाँ भी। रात हो चुकी थी और इसी अँधेरे का फायदा उठा कर हम नमो जी के कमरे में घुस गए। ये चमकती सफ़ेद दाढ़ी क्या खूब चांदनी बिखेर रही थी। वो अपनी कुर्सी पर बैठकर कोई किताब बांच रहे थे , शीर्षक थोड़ी देर तक तो नहीं देख पाया अंग्रेजी में था किन्तु थोड़ी मशक्कत के बाद पता चल ही गया उनकी किताब का नाम -Gulliver's Travels था। उनके कमरे की दिवार पर दुनिया का नक्शा टंगा हुआ था और लगभग आधे नक़्शे पर हरे और लाल रंग के पिन घुसे हुए थे। शायद ये पिन इंगित कर रहे थे कि नक़्शे की ये जगहें जहाँ जहाँ पिन लगी थी सारी नमोजी की चरणधूलि पाके धन्य हो चुकी थी। किन्तु लाल और हरे का मतलब क्या हुआ भला? एक लाल पिन हमारे प्रिय पडौसी देश के सीने पर भी घुसी हुयी थी। ओह मतलब समझा हरी पिन मतलब जहाँ आमंत्रण पर पधारे थे और लाल पिन मतलब जहाँ जाके नमोजी ने कहा था "सरप्राईज़ ". . .
बस अब इतनी संवेदनशील जगह पर ज्यादा समय नहीं बिता सकता था तो चुपचाप मैं वहां से कूच कर गया।

अगला और अंतिम पड़ाव था भारत के सबसे ज्यादा चर्चित और चहेते CM का घर। प्यार से इनको भी कईं नाम दिए गए है परंतु इन्हें किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। पहले धरने-आंदोलनों से और फिर ट्विटर के माध्यम से ये कईं लोगो का मनोरंजन करते आ रहे है। रात हो चुकी थी मैं गलती से इनके बैडरूम में दाखिल हो गया था सो डर और शर्म के मारे इनके बेड के नीचे जाके घुस गया था। तभी भाईसाब और भाभी जी आये मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था की यहाँ से कैसे निकलूँ इसलिए चुपचाप वहीं इनके सोने का इंतजार करता रहा। अब आपको पता ही है कि किसी दंपत्ति के बैडरूम चुपके से उनकी बातें सुनना जुर्म है और उन बातो को फिर ज़माने को बताना तो घोर अपराध है। किन्तु लाख कोशिशो के बावज़ूद मैं खुद को रोक नहीं पाया, न सुनने से न ही सुनाने से। तो सुनिये :
मैडम : कितने दिन हो गए आपने रोमांस तो क्या रोमांटिक बातें भी नहीं करी मुझसे। कितने साल हो गए आप मुझे फिल्म दिखाने भी नहीं ले गए हर बार उस मुए मनीष को ले जाते हो। आखिर कब तक चलेगा ऐसा ?
भाई साहब खांसते हुए और मफलर को उतार के साइड में रखते हुए बोले : जानू मैं तुमसे कितना प्यार करता हूँ ये मुझे ट्वीट करके बताने की जरुरत नहीं। मैं तुम्हे डेट पे ले जाना चाहता हूँ, बच्चो को पिकनिक पे ले जाना चाहता हूँ, तुम्हे फिर से पहले जैसा रोमांस करना चाहता हूँ पर क्या करूँ ? मुझे मोदीजी ये सब करने ही नहीं देते।

इतने में मेरी आँख लग गयी और जब खुली तो खुद को अपने कमरे में स्वयं के बिस्तर पर पाया। धत्त तेरे की ये दिल्ली की मनमोहक सैर तो एक स्वप्नदोष निकल गया मेरा मतलब दोषपूर्ण स्वप्न निकल गया।

 नोट: चित्र गूगल इमेज सर्च के सौजन्य से

Tuesday, 14 June 2016

पहली बारिश



बारिश की पहली बौछार, बिजली की चमकार, मिट्टी की सौंधी महक और पहला -पहला प्यार। अरे अरे आप तो रोमांटिक होने लगे , रुकिए तो सही। श्रृंगार रस  से भरी ये बातें अब जवानी में अच्छी लगती है किन्तु बचपन में तो इन सबके मायने अलग ही हुआ करते थे।

वैसे तो इस पहली बारिश के मायने धरती पर निवास करने वाली हर प्रजाति के हर उम्र, लिंग, और व्यवसाय के हिसाब से अलग अलग हो सकते है। परन्तु मैँ आज संक्षिप्त में बचपन की ही बात करूँगा।

जून का आधा महीना बीत जाने के बाद जैसे ही मौसम सुहाना होने लगता, बादलों का झुण्ड आवारागर्दी करते हुए बरसने को बेचैन होता, बिजलियाँ लूप-झूप करने लगती वैसे ही हमारे दिलो की धड़कने बढ़ने लगतीं थी। यहाँ धड़कनो का ताल्लुक कतई रोमांटिक भावनाओ से नहीं है।  ये पहली बारिश संकेत होती थी गर्मी की छुट्टियां ख़त्म होने का, ये कड़कती बिजलियाँ कहती थी बंद करो ये क्रिकेट और गरजते बादल संदेसा लाते थे की अब स्कूल शुरू होने को है,और इसीलिए तेज़ होती थी धड़कने।



हर इंसान को ईश्वर का वरदान होता है की जो चीज वो टाल नहीं सकता उसके साथ ताल-मेल बैठा ही लेता है। फिर चाहे वो शादी हो, नौकरी हो या स्कूल। इसी प्रकार छुट्टियों का खत्म होना, स्कूल का खुलना और पढ़ाई का शुरू होना वो घटनाएँ थी जिन्हे टाला नहीं जा सकता था। इसलिए इन सब के साथ ताल-मेल बैठाया जाता था इस लालच के साथ की अब सब कुछ नया नया होने को है। नयी क्लास, नयी किताबें, नया बस्ता ( स्कूल बैग) नयी यूनिफार्म और भी कईं चीजे।

तब मिट्टी की खुशबू से ज्यादा अच्छी लगती थी नयी किताबों की महक, जिस प्रकार पहली पहली बूंदे सुखी पड़ी जमीन को भिगोती थी उसी प्रकार नयी-नयी पेंसिल से कोरी कोरी नोटबुक पर नाम लिखा जाता था। 
नाम -> प्रितेश दुबे 
विषय -> हिंदी 
कक्षा ->४ थी 
 जैसे पहली बारिश धरती को धानी चुनर से ढँक देती थी उसी प्रकार हम अपनी किताबो को भूरे कवर से ढंका करते थे। स्कूल खुलने के समय की खरीदी किसी शादी ब्याह की शॉपिंग से कम न होती थी। घर का माहौल स्कूलमय हो जाया करता था। पापा किताबो पर कवर चढ़ाते और माँ यूनिफार्म की फिटिंग सही करती। और हम अपने नए बस्ते को ज़माने में व्यस्त रहते। 
और हाँ WWF के पहलवानो वाले, डिज़्नी के कार्टून वाले और क्रिकेटर्स के फोटो वाले स्टिकर्स का तो बोलना भूल ही गया। 

ऐसा नहीं है की पहली बारिश सिर्फ हमारी धड़कने तेज़ करती थी बल्कि पापा को भी मन ही मन परेशान करती थी। स्कूल खुलने पर हमारा नया बस्ता तो नयी किताबो-कॉपियों से भर जाता था परन्तु शायद उनका बस्ता (बटुआ)खाली हो जाया करता था। जो चीज टाली  नहीं जा सकती उसके साथ ताल-मेल बिठाना भी तो उन्होंने ही सिखाया था तो वो भी इस परिस्थिति से ताल-मेल बैठा ही लेते थे हर बार। 

बारिश तब भी आती थी, बारिश अब भी आती है। स्कूल तब भी खुलते थे, स्कूल अब भी खुलते है। पापाओं की जेब तब भी खाली होती थी और अब भी खाली होती है। सब कुछ वैसा का वैसा है सिवाए बचपन के। बचपन अब वैसा नहीं रहा।



Thursday, 14 April 2016

बाबा साहेब आंबेडकर

बाबा साहेब आंबेडकर की १२6 वीं  जयंती मनाई जा रही है और बड़े धूमधाम से ही मनाई जा रही है। पिछले कुछ दिनों से चंदा उगाही का कारोबार भी चल रहा है। हमारे देश में कोई भी महोत्सव चाहे वो धार्मिक हो, राजनैतिक हो या सामाजिक हो उसकी तैयारी बड़े जोरो शोरो से होती है। "जोर" लगा लगा के चन्दा उगाया जाता और फिर उस चंदे से हाई वोल्टेज DJ वाले बाबुओं से "शोर" करवाया जाता है। ऐसा अमूमन सभी प्रमुख महोत्सवों के दौरान होता है। (सभी मतलब सभी)

हाँ तो हम बात कर रहे थे बाबासाहेब आंबेडकर की १२6 वीं  जयंती की तो सभी राजनैतिक दल, सामाजिक कार्यकर्ता, और दलितों के, पिछड़ो के मसीहा लोग आज के दिन अपने वातानुकूलित ऐशो -आराम छोड़ के १-२ जगह भाषण देंगे, पिछली, मौजूदा और आने वाली सभी सरकारों को गरियाएंगे और घर जाके २-४ पेग मार के सो जायेंगे। ऐसा ही होता आया है बरसो से।



बरसो से हम सब के मन में राजनैतिक दलों ने बाबासाहेब की एक छवि बना दी है की वो दलित नेता थे। बाबासाहेब का योगदान सिर्फ दलितों के उत्थान के लिए ही सिमित था। हमारी भी स्कूली किताबो ने हमे ज्यादा कुछ नहीं पढ़ाया बाबासाहेब के बारे में सिवाए इसके की वो हमारे संविधान के निर्माता थे।

बाबासाहेब आंबेडकर को इतना "सेलिब्रेट" करने वाले भी उनके कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण योगदानों के बारे में शायद ही जानते होंगे। आइए आपको बताता हूँ की "भारत के आज़ाद होने के बाद" बाबासाहेब का क्या क्या योगदान रहा है देश के लिए। (जो वाक्य बोल्ड और रेखांकित है उसका महत्त्व भी आप समझेंगे लेख के अंत में ).

१. RBI को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ कहा जाता है, इसकी परिकल्पना बाबासाहेब ने की थी।

२. भारतीय वित्त आयोग जो की भारतीय राज्यों और केंद्र के बिच वित्त प्रबंधन की प्रमुख कड़ी है का गठन भी बाबासाहेब के प्रयासों से हुआ था।

३. संविधान में "हिन्दू कोड बिल" को कानूनी दर्जा दिलाने की जद्दोजहद भी आंबेडकर ने की थी, इस बिल का मकसद महिला सशक्तिकरण, सती प्रथा और दहेज़ प्रथा का उन्मूलन था। अगर यह बिल पास हो जाता तो १९५१ से ही असल "Women Empowerment" की शुरुआत हो जाती। परन्तु ऐसा हो नहीं पाया और २०१४ में राहुल गांधी को "Women Empowerment" शब्द के रट्टे लगाने पड़े।

४. श्रम मंत्री रहते हुए उन्होंने आधिकारिक कामकाज के घंटो को १२ से घटवा के ८ करवाया। (आईटी वालो को तो अब तक अपने बाबासाहेब का इंतजार है )

५. कश्मीर में आर्टिकल ३७०, जिसके बूते पर कईं सरकारे आई और गयी।  इसी आर्टिकल ३७० को पूरी तरह से नकारने का साहस भी बाबासाहेब ने दिखाया था। उन्होंने कश्मीरियों से कहा था की आप चाहते हो की आपकी सीमा सुरक्षा हम करे, आपको आर्थिक सहायता हम दे , आपको आपदा सहायता हम प्रदान करे और आप हमारे कानून नहीं मानेंगे , ऐसा कैसे हो सकता है ? ( हम मतलब भारत सरकार)
किन्तु आज बाबासाहेब के कईं अनुयायी JNU में आर्टिकल ३७० की वकालत करते है और कश्मीर की आज़ादी का बीड़ा उठाये है।

६. नेशनल पावर ग्रिड, राष्ट्रीय सिंचाई योजना जैसी कईं परियोजनाओं को क्रियान्वित करने में योगदान।
७. बौद्ध धर्म की परिस्थापना और
८. भारत के कईं राष्ट्रिय चिन्हों पर बौद्ध धर्म की छाप भी इन्ही के प्रयासों का परिणाम है।

और भी कईं चीजे मेरी व्यक्तिगत जानकारी के आभाव में छूट गयी है , किन्तु इतनी काफी है इस बात के प्रमाण के लिए की आधुनिक भारत की नींव रखने में उनका अच्छा ख़ासा योगदान रहा है। जिसे राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए पिछली सरकारों ने प्रचारित नहीं किया।

उनके इन योगदानों को शायद कोई याद भी नहीं करना चाहता, क्योंकि ये पुरे देश के हित में थे। आजकल देश-हित  की बात करने वालो को "सूडो नेशनलिस्ट", "भक्त" या "संघी" कहा जाता है। और अगर बाबासाहेब के इन सभी योगदानों का जिक्र हो गया तो हंगामा खड़ा हो जायेगा। इसीलिए आजतक उन्हें सिर्फ और सिर्फ संविधान निर्माता और दलितों का नेता ही कहा जाता है।

अब चलते चलते आपको उस बोल्ड और रेखांकित वाक्य के बारे में भी कुछ जानकारी दे देते है। उनके उपरोक्त  सभी योगदान भारत के आज़ाद होने के बाद के थे जब उन्हें संवैधानिक ओहदा प्राप्त हुआ था। आज़ादी के पहले की उनकी सारी लड़ाई दलितों के उत्थान के लिए थी। यहाँ अगर कहा जाये कि उनकी लड़ाई अंग्रेजो के खिलाफ डायरेक्ट कभी नहीं रही तो भी असत्य नहीं होगा । उन्होंने अंग्रेजो से भी हाथ मिलाया था ताकि दलितों को अधिकार मिल सके। उन्हें कुछ हद तक कोई सरोकार नहीं था की देश में सरकार किसकी है। उनकी प्राथमिकता में सिर्फ पिछड़ो को आगे लाना था। कुछ एक मुद्दों पर वो गांधीजी के विरूद्ध भी खड़े हुए थे। उन्ही के प्रभाव के चलते आज़ादी के आंदोलन में दलितों का संगठित योगदान उतना अहम नहीं रहा है जितना हो सकता था।

और जहाँ तक रही बात दलितों के लिए काम करने की तो वो जरूर उन्होंने किया किन्तु अकेले उन्होंने किया ऐसा भी नहीं है। जातीप्रथा के खिलाफ अभियान और कईं रूढ़ियों को खत्म करने के लिए प्रमुख कदम उठाने वालो में जो नाम आते है वो राजाराममोहन राय, रबिन्द्र नाथ टैगोर, केशब चन्द्र सेन जैसे लोग है जो की ब्राह्मण थे। इनके अलावा बॉम्बे प्रार्थना समाज, आर्य समाज, सत्य साधक समाज इत्यादि ने भी सर्व कल्याण और मनुष्यो में समभाव  के लिए काम किया। बाबासाहेब ने एक वोटबैंक जरूर खड़ा किया और आज कईं राजनैतिक पार्टियां उसी वोटबैंक के लालच में "दलित-दलित " चिल्लाती फिर रही है।  आज शायद बाबासाहेब अपनी आँखों से यह सब देख रहे होते तो शायद उन्हें थोड़ा दुःख जरूर पहुँचता।

अगर हमारे पुरखो ने जाती प्रथा का प्रचलन शुरू किया और मनुष्यो को उनके कार्य के अनुसार विभाजित किया तो "Social Equality" की बात करने वाले लोगो ने इन्ही मनुष्यो के बिच बैर और घृणा को जन्म दिया। यह सामाजिक विभाजन अब इतना बढ़ चूका है की हम देश हित के बारे में अब भी नहीं सोच रहे है। अब भी हम सिर्फ हमारी जाती, हमारा धर्म, हमारा समाज इन्ही घेरो में अटके है।

हमारा देश तेज़ी से आगे तो बढ़ा है किन्तु ट्रेडमिल के ऊपर। सालो तक  भागने के बाद उतरे तो पाया की हम तो वहीं खड़े है।


नोट: इस लेख का उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहात करने का कतई नहीं है। हम बाबासाहेब आंबेडकर के कार्यो के लिए उनका भरपूर सम्मान करते है। किन्तु उनके नाम का दुरुपयोग करने वालो के सख्त विरुद्ध है। जिस प्रकार गांधी जी के नाम का भरपूर दुरूपयोग होता आया है वैसा ही कुछ लोग आंबेडकर के साथ करने जा रहे है।
फिर भी दिमाग की जगह अगर किसी का दिल दुखा हो तो लिखित में क्षमा चाहता हूँ और आशा करता हूँ की इस लेख के विरोध में कहीं आग-जनि, बंद या पत्थरबाजी नहीं होगी। धन्यवाद।

Tuesday, 12 April 2016

तलाश - जीवन यात्रा

अँधेरी कोठरी में ढूँढता  हूँ एक दीपक उजाले के लिए 
जैसे भटका हुआ परिंदा ढूंढे कोई दरख़्त सुस्ताने के लिए 

चेहरो की इस भीड़ में तलाशता हूँ एक चेहरा जिसे कह सकु मैं अपना 
जैसे हर सुबह उठके याद करे कोई एक भुला हुआ सा सपना 

असंख्य दर्पणों में खोजता हूँ खुद की एक तस्वीर धुँधली सी 
जैसे हजारो बार किसी से मिलने पर भी उसकी हर मुलाक़ात लगे पहली सी 

कहने को तो जी रहा हूँ मैं, पर अभी भी तलाश है ज़िन्दगी की 
ऊपर वाला भी राह दिखाए तो कैसे, उसे भी तो खोज है सच्ची बंदगी की 

कुल मिलाकर बस बात इतनी सी है की 

ढूंढ रहा हूँ मैं अपनी आत्मा, जो खो गयी है कहीं मेरे ही भीतर 
जैसे तेज़ बहती नदी थक हार कर तलाशती है अपना समंदर 

यह जीवन एक यात्रा है अनन्त खोज की, जिसमे न जाने क्या ढूंढ रहा है हर कोई और इसी खोज में खो दे रहा है स्वयं को कहीं।


Thursday, 3 March 2016

कन्हैया की ज़मानत

  
हमारा देश आजकल एक अलग ही "संघर्ष" से जूझ रहा है। JNU के मसले को कोई हर दिन एक नया मोड़ दिया जाता है। इस सिलसिले में "सच" DSLR कैमरा की रॉ फाइल की तरह है जो सिर्फ फोटोग्राफर के पास है और हमारे सामने सिर्फ "Processed" फोटो ही आ रही है।  जिसको जैसी फोटो अच्छी लगे उसके लिए उसी प्रकार से "Process" की हुयी तस्वीर हाजिर कर दी जाती है। क्या पता २ साल बाद यूनिवर्सिटी का कोई कर्मचारी सेवानिवृत्त होने के बाद एक नया ही सच लेकर सामने आये। बहरहाल इस फैशन शो के शोस्टॉपर कन्हैया कुमार को दिल्ली हाईकोर्ट ने ज़मानत दे दी है।


किन्तु यह ज़मानत कुछ चेतावनी और मशवरों के साथ दी गयी है। मीडिया और सोशल मीडिया पर हर कोई ज़मानत का जिक्र कर रहा है किन्तु उसके ऊपर लगे * ( शर्ते लागू) का जिक्र कोई नहीं कर रहा है। कन्हैया की ज़मानत के कोर्ट के आदेश की एक प्रति हमारे हाथ भी लग गयी है तो हमने सोचा क्यों न हम आपके सामने कन्हैया की ज़मानत का विश्लेषण प्रस्तुत करें  in cut to cut style.

तो जनाब, कोर्ट के आदेश के मुताबिक,

"कन्हैया को ६ महीने की जमानत पर रिहा किया जाता है और उसके माँ बाप को मशवरा दिया जाता है कि  जल्द से जल्द कन्हैया के लिए एक लड़की ढूंढ कर उसके साथ इसकी शादी करवा दी जाये। कन्हैया को अगले ३० दिनों के भीतर अपना फेसबुक रिलेशनशिप स्टेटस "कोम्प्लिकेटेड " से बदलकर "मैरिड To XYZ" करना है। अदालत चाहती है की एक महीने बाद कन्हैया के फेसबुक वाल पर JNU वाले वीडियो के बजाये हनीमून के पिक्चर्स पाये जाने चाहिए। अदालत बहुत ही बारीकी से कन्हैया का फेसबुक फॉलो कर रही है और उपरोक्त सभी मटेरियल फेसबुक या न्यूज़  में न पाये जाने पर  इसे अदालत की अवमानना करार दिया जायेगा "

अदालत के इस क्रांतिकारी फैसले को समझने के लिए जब हमने हाईकोर्ट  के एक वरिष्ठ वकील से बात की तो बेहद ही चौंकाने वाली बात सामने आई। आईये पढ़िए क्या कहा उन्होंने।

"देखिये, अदालत ने यह फैसला बहुत ही सोच समझ कर "बच्चे" के जीवन को संवारने के लिए दिया है। कन्हैया एक अच्छा स्टूडेंट बने न बने परन्तु उसे एक अच्छा पति तो झक मारकर बनना ही पड़ेगा।  अभी बहुत से लोगो को कन्हैया से शिकायत होगी की वो वन्दे के बाद मातरम का नारा नहीं लगाता है किन्तु शादी के बाद तो उसे I love you के बाद I love you too का नारा लगाना ही पड़ेगा। यही नहीं,  शादी के बाद कन्हैया को कश्मीर तो दूर  खुद की आज़ादी के बारे में  सोचना भी  महंगा पड़ेगा।  आज लाल-झंडे उठाने वाला हमारा ये दोस्त कल सब्जियों के झोले में लाल टमाटर उठाता हुआ मिलेगा। अफज़ल गुरु का शहादत दिवस भूल के हर साल अपना शहादत दिवस  मनायेगा शादी की सालगिरह के तौर पर। "

इतनी बात कहते कहते वकील साब की आँखें भर आयी और उन्होंने रजनीगंधा की पुड़िया फाड़कर अपने मुखकमल को समर्पित की और अब भरी आँखों के साथ भरे मुंह से बोलना शुरू किया। (पति है वो भी, अपनी छोटी से दुनिया को कदमो में लाने के लिए रजनीगंधा का नाकामयाब सहारा ले रहा है ) इससे पहले की वो गुटखे को देखकर चर्चा को बजट की और मोड़े हमने कहा आप कन्हैया पर बोलना जारी रखे।

उन्होंने आगे कहा

"देखिये मेरी नजरो में तो अदालत ने उसे एक तरह से जमानत देने के बजाय उम्रकैद का फैसला सुनाया है।  दर-असल अदालत ने त्रेतायुग के कन्हैया के केस का संज्ञान लेते हुए यह फैसला सुनाया। 

त्रेतायुग में राम थे, कृष्ण तो द्वापर में थे न सर ?

अरे हाँ तो राम को भी तो शादी के तुरंत बाद वनवास लगा था , भाई भावनाओ को समझो, GK टेस्ट तो मत करो। 

ओके ओके, आप बताईये आगे।

हाँ तो आप तो जानते ही होंगे की कैसे रुक्मणी से शादी करके द्वापर वाले कन्हैया की सारी लीलाओ पर विराम लग गया था। ऐसे ही हमारे इस JNU वाले कन्हैया का होगा। बेचारा कल तक देश की बर्बादी तक जंग लड़ने की बात कर रहा था और अब देखिएगा शादी के बाद उसकी इस वीरता पर  कैसे जंग लग जाएगी। पाकिस्तान जिंदाबाद की जगह पत्नी महान -जिंदाबाद जिंदाबाद के नारे लगाएगा । अब तक जो फेसबुक स्टेटस  क्रांतिकारी हुआ करते थे अब  'Checked into falaana-dhimkaa mall with wife', "Happy birthday dear wife" 'Watching bhutiyapa movie with wife' जैसे स्टेटस में बदल जायेंगे। सरकार बदलने की बात करने वाला हमारा वीर बहादुर 'कॉमरेड' अब टीवी का चैनल भी नहीं बदल पायेगा। में तो कहता हूँ की अदालत ने लाल सलाम को लाल बिंदी से दबा दिया है।  और.............."


"यूँही तुम मुझसे बात करती हो , या कोई प्यार का इरादा है .........."

इतनी ही गंभीर बातें हो पायी थी हमारी कि अचानक से वकील साब की बीवी का फ़ोन आ गया और यह ऊपर उनके फ़ोन की रिंगटोन थी। वकील साब को अचानक किसी "जरूरी काम" से जल्दी निकलना पड़ा। किन्तु उन्होंने बहुत ही सरल भाषा में अदालत के फैसले की व्याख्या करके हमें ज्ञान संपन्न बना दिया।


नोट: यह लेख एक व्यंग्य मात्र है और इसका उद्देश्य केवल हास्य पैदा करना है। हम भारत के नागरिक होने के नाते देश और इसकी न्याय व्यवस्था का भरपूर सम्मान करते है। और जी हाँ, शादी और पत्नियों का भी उतना ही सम्मान करते है। :) उपरोक्त लिखी सभी बाते काल्पनिक है।

Saturday, 27 February 2016

भारत की युवाशक्ति


जब से सत्ता संभाली है तभी से हमारे प्रधानमंत्री जी ने दुनियाभर में ढिंढोरा पिट रखा है कि भारत दुनिया का सबसे युवा देश है। भारत का युवा दुनिया बदलने की ताकत रखता है। सारी दुनिया हमारे देश की ओर आशाभरी दृष्टि से देख रही है। और भी न जाने कितनी बातें कही है हमारे प्रधानमंत्री ने हमारी युवा शक्ति के बारे में।

किन्तु बेचारे मोदी जी यह जानने में शायद असफल रहे है की असल में उनकी तथाकथित महान युवा शक्ति कर क्या रही है। हमारे देश में आज की तारिख में मोटे-मोटे तौर पर ५ प्रकार की युवाशक्ति पायी जाती है। मोटे तौर पर इस लिए विभाजित किया क्योंकि इन्ही ५ श्रेणी के युवा तय कर सकते है की देश को किस दिशा में लेके जाना है।

आईये आपको हम बताते है उस युवाशक्ति के बारे में, मोदी जी जिसका प्रचार प्रसार समस्त विश्व में कर रहे है ।

१. बुद्धिजीवी युवाशक्ति :
ये वो युवाशक्ति है जो अपने आपको "रॅशनल" कहते है और हर प्रकार के रूढ़िवादी विश्वास पर प्रश्न करते है। इसी कड़ी में कईं बार वो भूल जाते है की देश का इतिहास क्या रहा है। भूल जाते है की कुछ विश्वास इतने अटल होते है की तथ्यों से परे होते है। ये वो युवा है जिन्हे अपने "ईश्वर" से  ज्यादा भरोसा अपनी बुद्धिमता पर है। यहाँ तक तो सब कुछ अच्छा है, आपको सब ठीक लग रहा होगा। किन्तु यही वो युवा है जो बड़ी आसानी से बहकावे में आता है। यही वो युवा है जो गरीबो के लिए लड़ते लड़ते अचानक से आतंकवादियों के लिए मोर्चा लिया खड़ा पाया जाता है। इस युवाशक्ति के लिए अफजलगुरु और याकूब मेमन जैसे लोग हीरो हो जाते है।यही वो युवा है जो कलम छोड़ कर बन्दूक उठाने की बात करता है। यही वो युवा है जो अंधभक्ति पर सवाल उठाते उठाते देशभक्ति भूल जाता है। यही वो युवा है जो दक्षिणपंथ (राइट विंग) का विरोध करते करते देश का ही विरोध करने लग जाता है।सामंतवाद से लड़ते लड़ते ये अलगाववाद से जुड़ जाते है। ये लोग अभिव्यक्ति की आज़ादी के नाम पर देशविरोधी नारे लगाते है। इस प्रकार की युवाशक्ति हमारे देश में सदियों से रही है किन्तु उन्होंने कभी देश के अपमान में एक शब्द भी नहीं कहा। किन्तु आज कुछ लोगो के बहकावे में आकर यही युवाशक्ति अपने पथ से भटक रही है।





२.सायबर युवाशक्ति:
दूसरी प्रकार का युवा वो है जिसे जमीनी हकीक़त से कोई सरोकार नहीं है। जिसके लिए मीडिआ (प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और ज्यादातर सोशल मीडिआ ) ही साक्षात ईश्वर है। यह वो युवा है जो सिर्फ इंटरनेट पर देश के लिए लड़ाई लड़ता है। यह वो युवा है जिसे सरकार को गालियां देना फैशन लगता है। यह वो युवा है जो आये दिन देशद्रोही और देशभक्ति का प्रमाणपत्र  बांटता फिर रहा है। सबसे खतरनाक तो इनमे से वो है जिन्हे "लॉजिक" और "तथ्यों" से कोई मतलब नहीं होता। ये वो युवा है जो "टार्ड " और "भक्त" नाम के दो समुदायों में बंट के रह गया है। वैसे इनमे एक तीसरा समुदाय भी है जिसे किसी पार्टी, देश या धरम से कुछ लेना देना नहीं होता। इस समुदाय के लोग सबसे काम हानिकारक भी होते है। ये समुदाय है "एन्जेल-प्रिया" या "मीणा-बॉयज" टाइप फेसबुक अकाउंट धारियों का।


३.आक्रोशी युवाशक्ति:
तीसरी प्रकार की युवाशक्ति वो है जिन्हे बस "आदेश" मिलना चाहिए और वो निकल पड़ते है सडको पर। इस प्रकार के युवा इंटरनेट पर ही लड़ाई नहीं लड़ते अपितु सडको पर खुले-आम बसो को, गाड़ियों को, ट्रको को फूंक डालते है। ट्रेनों को जला कर पटरियां उखाड़ फेंकते है। जब जहाँ जैसा मौका मिले वैसा कुकृत्य करते है और ग्लानि तो दूर इनके माथे पर शिकन तक नहीं आती है। ये वो युवा है जिसे पढ़ना लिखना नहीं है, बाौद्धिक मेहनत इनसे नहीं होती है। इन्हे हर प्रकार की शासकीय सुविधा पर एक ख़ास आरक्षित तथा अप्रतिबंधित अधिकार चाहिए। इन्हे आरक्षण चाहिए। इन्हे उसी "इंफ्रास्ट्रक्चर" के लिए आरक्षण चाहिए जिसे यह आये दिन नुकसान पँहुचाते रहते है।


४.बेचारी युवाशक्ति:
ये वो युवाशक्ति है जो देश को ज्यादा फायदा नहीं तो कोई नुकसान भी नहीं पँहुचाते है । ये मेहनत करते है, पढ़ते है लिखते है। रोजी-रोटी कमाने के लिए दिन रात एक कर देते है। ये वो युवा शक्ति है जो रात-रात भर अपनी "तशरीफ़" रगड़ कर काम करते है और ईमानदारी से पूरा का पूरा इनकम टैक्स भी भरते है। ये वो युवाशक्ति है जो अगर नौकरी न भी मिले तो मायूस होकर आरक्षण के लिए पटरियां नहीं उखाड़ते अपितु उसी स्टेशन पर चाय की टपरी खोल कर अपनी आजीविका चलाते है। इनको कोई मतलब नहीं है आप किस पार्टी को अच्छा मानते है किसे बुरा। इनको कोई मतलब नहीं है अगर किसी ने पैगम्बर को बुरा कहा या दुर्गा माँ को अपशब्द कहे। इन्हे मतलब होता है तो इस बात से की आज इनके यहाँ सब्जी क्या बनेगी, आज बेटे को दूध मिलेगा या नहीं, इस महीने की EMI का बंदोबस्त होगा या नहीं, इस बार अपनी बेटी को एडमिशन दिलवा पाउँगा या नहीं और ऐसी ही तमाम जद्दोजहद में जीवन बीत जाता है इनका।


५ . असल देशभक्त युवा:
यहाँ हम उस युवा शक्ति की बात कर रहे है जो बहुतायत में बिलकुल नहीं पायी जाती है। दुर्लभ किसम की युवा शक्ति है यह। इनके मन में असल देशप्रेम होता है जिसे इन्हे "फेसबुक" या "ट्विट्टर" पर साबित नहीं करना पड़ता। इनका देशप्रेम सर्वविदित होता है, जगज़ाहिर होता है। इनके देशप्रेम से किसी भारतवासी को कोई डर नहीं लगता अपितु दुश्मन देशो के हौसले पस्त हो जाते है इनकी देशप्रेमी के आगे। ये वो युवा शक्ति है जो चोटिल होने के बावजूद मोर्चा नहीं छोड़ते।इन्हे अपनी माँ से ज्यादा फ़िक्र भारत माँ की होती है। ये सामने से आतंकवादियों का सामना कर रहे होते है तो पीछे से अपने ही देश के "पथभ्रष्ट" युवाओ के पत्थरो का शिकार भी हो रहे होते है। ये वो युवाशक्ति है जिसे वन्दे-मातरम कहने या तिरंगे के आगे सर झुकाने में किसी धरम की परिभाषा रोकती नहीं है । ये वो युवाशक्ति है जिसके होने से ही हम है और बाकी के युवा है। उन माताओं को हमारा शत शत नमन है जिन्होंने ऐसे युवाओ को जन्म दिया है।




अब आप ही बताईये हमें किस वर्ग के युवा की सबसे ज्यादा आवश्यकता है और हम कितना और किस श्रेणी में योगदान दे रहे है देश को सुदृढ़ करने में ?

नोट: सभी चित्र इंटरनेट इमेज सर्च के माध्यम से विभिन्न सूत्रों द्वारा साभार संकलित

देश भक्ति

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