Friday, 20 February 2015

विरोध करो

हमारे देश में ३ विशेष प्रकार के लोग आपको ज़रूर मिलेंगे, एक जो आपकी किसी भी बात पर "हाँजी" की मुंडी हिलाएंगे, दूसरे वो जो आपको हर मोड़ पर, हर कदम पर "राय" देते मिलेंगे और तीसरे वो जो आपकी हर बात का "विरोध" करेंगे। ताज़ा सर्वे के आंकड़े बताते है की तीसरे टाइप के याने की विरोधी स्वाभाव के लोग दिन ब दिन बढ़ते ही जा रहे है।

हर जगह हर कोई किसी न किसी बात का विरोध कर रहा है, विधानसभाओ में विपक्षी दल सत्तारूढ़ दल का विरोध कर रहे है, पत्नियां पतियों का विरोध कर रही है, पप्पू अपनी मम्मी का विरोध कर रहा है , मम्मी मोदी का विरोध कर रही है , सेंसर बोर्ड गालियों का विरोध कर रहा है  और हम अपने सारे विरोध गालियां निकाल के कर रहे है।

अभी अभी वेलेंटाईन डे बीता, हर साल की तरह इस साल भी बहुत दिलजलों ने इसका विरोध किया। शादी से पहले हमने भी गर्लफ्रेंड बनाने की कोशिश की तो हमारे घरवालो ने विरोध किया और शादी के बाद कोशिश की तो घरवाली ने विरोध किया तो तैश में आकर हमने भी इस वेलेंटाईन डे का विरोध कर डाला।

खैर अगर इतिहास खंगाले तो विरोध करना भारतियों के स्वाभाव में था ही नहीं, किन्तु जब से गांधी जी ने अवज्ञा आंदोलन का पाठ पढ़ाया और उस पाठ को हमने इतिहास की किताबो में रटा तब से हमे विरोध करने की आदत सी हो गयी है। यह बात और है की हमारा विरोध कहीं नोटिस नहीं होता न ही उस चीज से बच पाते है जिसका विरोध हम करते है।

मसलन स्कूल न जाने का , सुबह जल्दी न उठने का , होमवर्क न करने का , खेलने न जाने देने का , बर्फ का गोला न खाने देने का और कद्दू, करेले, बैगन, मेथी, पालक, मूंग दाल का विरोध तो आपको याद ही होगा जो बचपन में बहुत किया। टाँगे पटक पटक के किया, मूह फाड़ के, दहाड़े मार के और जमीन पर लेट के किया, किन्तु इतना विरोध करने से आखिर मिला क्या ? कुछ नहीं।

इससे तो अच्छा होता की हमारी माँ ने ही बाबूजी का कुछ विरोध किया होता, तो कम से कम हम इस निर्दयी दुनिया में आने से तो बच जाते।  बचपन में कुचले गए हमारे विरोध की खुन्नस हम उम्रभर किसी न किसी तरह का विरोध करके निकालते रहते है।

आज की दुनिया में तो आलम यह है की अगर सारी दुनिया किसी चीज का विरोध कर रही है और आप कुछ नहीं कर या कह रहे तो आप एक नंबर के चु**ये करार दिए जायेंगे। आजकल अपना विरोध दर्ज करवाने के लिए आपको किसी अनशन पर थोड़े ही बैठना है न ही पुलिस के डंडे खाने है। सोशल मिडिया का ज़माना है भई और इस ज़माने में विरोध करना कितना आसान है, जिस किसी ने भी विरोधी स्वाभाव की पोस्ट डाली हो  उसपे जाके बस एक "Like" बटन ही तो दबाना है, या किसी की पोस्ट अच्छी न लगे तो उसको थोड़ा गरिया दो याने गालियां पटक दो बस हो गया विरोध और आप बन गए इंटरनेट के "Intellectual" प्राणी। कुछ ज्यादा तूफ़ानी करना हो तो उस पोस्ट की अपने निहायती घने नेटवर्क(फेसबुक, व्हाट्सप्प, ट्विटर) में आग की तरह फैला दीजिये। और ऐसा करके आपने अपने हिस्से की समाज सेवा कर ली मानो।

अब अगर राजनीती की बात करे तो विपक्ष में बैठी पार्टियों का भी तो एक ही काम है , विरोध करो। कुछ भी हो जाये बस सरकार के कामो का विरोध करो। सरकार ने गरीबो के लिए बैंक खाते खुलवाये, विरोध करो, सरकार ने उद्यमियों की सुविधा के लिए कदम उठाये, विरोध करो, बस किसी न किसी तरह विरोध करो। जब कांग्रेस की सरकार ने परिवार नियोजन लागू किया तब लालू विपक्ष में थे उन्होंने इस योजना का विरोध किया, परिणामस्वरूप दर्जन भर बच्चे पैदा कर डाले।  अभी हमारी कांग्रेस पार्टी ने तो आतंकवादियों के इरादो पर पानी फेरने वाले सुरक्षाकर्मियों का ही विरोध कर दिया। अब तो हालत यह है की विपक्षी पार्टियों के अंदर ही एक दूसरे का विरोध शुरू हो गया है।ताजा हाल यह है की बिहार में एक ही दल के २ मुख्यमंत्री एक दूसरे के विरोध में खड़े है।

परन्तु असल बात तो यही है की जिसका जितना ज्यादा विरोध वो चीज उतनी तेज़ी से फैलती है , उदाहरण देखिये। बचपन में होमवर्क का विरोध किया तो वो बढ़ गया, खेल और टीवी पर पाबन्दी का विरोध किया तो १० और चीजो पर पाबन्दी लग गयी। आज की बात करे तो मोदी जी का १० सालो तक भयानक विरोध किया गया, किन्तु फल क्या निकला ?वो उतनी ही प्रचंडता से सरकार में आये। इधर दिल्ली में मोदी ने केजरीवाल का विरोध करने में पूरी ताकत झोंक डाली, और इस विरोध का परिणाम क्या निकला वो तो आप जानते है। आतंकवाद का विरोध पूरी दुनिया सालो से करती आ रही है, किन्तु क्या हुआ? रुकने की बजाये यह तेज़ी से विश्व के हर देश में फैलता जा रहा है। स्वास्थ्य की बात करे तो हम लोग एबोला और स्वाईन फ्लू का कितना विरोध कर रहे है फिर भी रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। और सबसे बड़ा उदहारण फिल्म PK, कितना विरोध हुआ इस फिल्म का, किन्तु सबसे ज्यादा कमाई भी इसी फिल्म ने की।

इतने सरे उदाहरणों से कुछ समझे आप ? मतलब ये है की जिस चीज का जितना तगड़ा विरोध करो वो उतनी ही तेज़ी से फैलती है, सीधे सीधे न्यूटन महाराज का तीसरा नियम लागू हो रहा है।

तो अब ध्यान रखे, जब भी पेट्रोल के दाम घटे तब आप विरोध करे, जब भी अर्थव्यवस्था सुधार की बात हो आप विरोध करे, जब भी सेंसेक्स ऊपर चढ़ता दिखे तुरंत उसका विरोध शुरू करे, सफाई अभियान का विरोध करे, स्वाईन फ्लू और अन्य बीमारी से बचने के लिए जो निर्देश दिए है उनका विरोध करे, यहाँ तक की अगर कोई सरकारी कर्मचारी रिश्वत न ले तो उसका भी विरोध करे, फिर देखिये कैसे हमारा देश तरक्की करता है।

मैंने तो सरकार को चिट्ठी लिख के अपना यह प्रस्ताव भी भेजा है की सरकार अपने ख़ुफ़िया सोशल नेटवर्किंग डिपार्टमेंट को ही यह काम सौंप दे, विरोध करने का, बाकी हम "लाइक और शेयर" के बटन तो दबा ही देंगे।

तो कुल मिलाकर मन की शांति और देश की तरक्की के लिए विरोध करते रहिये। हम पैदा ही विरोध करने और सहने के लिए हुए है।




Wednesday, 11 February 2015

जीन्स V/s फॉर्मल पैंट

उस इंसान(विशेषतः पुरुष प्रजाति) को अपनी कमर की साइज बढ़ने का अहसास जल्दी ही हो जाता है जो नित्य प्रतिदिन फॉर्मल्स कपडे पहन के काम पे जाता है। जीन्स वालो को इतना जल्दी समझ नहीं आता, उन्हें तो तब समझता है जब खड़े खड़े जूते की लेस बांधना पड़ जाये। 

फॉर्मल्स पहनने वाले जब फैलने लगते है तो सबसे ज्यादा बुरा उनके कपड़ो को लगता है। शर्ट तो फिर भी फंसा लेते है शरीर पर किन्तु पैंट सड़ा सा मूँह बना लेती है जब उसको कमर पे चढाने की कोशिश की जाती है। जैसे तैसे पेंट ऊपर खिसकती है तो उसकी बटन रूठ जाती है और लगने से साफ़ मना कर देती है। पेंट को जैसे तैसे फंसा भी लो तो बेल्ट हड़ताल पे बैठ जाता है, बेल्ट की नजर में हम चुलबुल पाण्डे होते है क्योंकि हर महीने उसमे एक नया छेद करते है।


 आजकल के रेडीमेड कपड़ो के ज़माने में पैंट्स ऐसे भी नहीं होते की टेलर को २० रुपये देके कमर बढ़वा लो। ले देके आपके पास २ ही विकल्प होते है, या तो नया खरीदो या फिर कमर को कम कर लो। पहला जेब पर भारी पड़ता है तो दूसरा जेब और शरीर दोनों पर। मैं दोनो ऑप्शंस को दरकिनार कर तीसरे विकल्प के तौर पे जीन्स अपना लेता हूँ। जीन्स का स्वाभाव बिलकुल कट्टरपंथी नहीं है साहब, बहुत ही फ्लेक्सिबल होती है। आप ३२ की लेके आये थे और अब कमर ३४ हो गयी तो भी एडजस्ट हो जाएगी। 

सोमवार की अलसाई सुबह में मेरे फॉर्मल पेंट ने मुझे धुत्कार दिया तो मैंने भी तैश में आकर जीन्स को अपने बदन से लगा लिया। सप्ताह के पहले ही दिन आप सुबह सुबह ऑफिस जीन्स पहन के जाओ वो तब तक ठीक है जब तक की कोई HR बाला या बाल गोपाल आपको रोक के टोक न दे। मेरे नसीब तो गधे की पूँछ के बाल से लिखे हुए है, घुसते से ही सुनने को मिला "एक्सक्यूज़ मी, आप ड्रेस कोड का वोइलेशन कर रहे है" 

 मैंने मन ही मन सोचा की हद्द है यार वहां सीमा पर पड़ौसी देश सीज़फायर का वोइलेशन किये जा रहा है, चुनावो में नेता कोड ऑफ़ कंडक्ट का वोइलेशन कर रहे है, सडको पर हजारो लोग ट्रैफिक रूल्स का वोइलेशन कर रहे है उनको कोई कुछ नहीं कह रहा,यहाँ इस नन्हे से एम्प्लोयी का ड्रेस कोड वोइलेशन तुम्हारी चिंता का विषय बन गया। 

खैर मैंने उस HR सुंदरी से कहा की मैडम, दर-असल जिस हिसाब से हमारी कमर बढ़ रही है न उस हिसाब से आप सैलेरी नहीं बढ़ा रहे हो, अब हर महीने नया फॉर्मल पेंट खरीद के तो नहीं पहन सकते न। मेरी बात सुनकर उसकी आँखों में पानी भर आया और उसने अपनी भीगी पलकें झुकाके मुझे अपनी सीट पे जाने को कहा। 

कुछ ही देर बाद में देखता हूँ की एक ई-मेल आयी हुयी है की इस बार सबको सैलेरी हाईक उनकी कमर की साइज़ के हिसाब से मिलेगा। जिसकी ३६ इंच उसको ३६ टक्का और जिसकी ४० इंच उसको ४० टक्का। मेरे पीछे वाले क्यूबिकल की कुछ ज़ीरो साइज़ लड़कियों को छोड़ के पूरा ऑफिस जश्न के माहौल में डूब चूका था। मैं भी चिल्ला रहा था धन्य है यह कंपनी मैं अब यह कंपनी नहीं छोड़ूंगा, नहीं छोड़ूंगा , कभी नहीं छोड़ूंगा 

 ……………इतने में  बीवी ने एक जग पानी मेरे मुँह पे डाला और चिल्लायी , पहले यह रज़ाई छोडो और उठो, मंडे है आज ऑफिस नहीं जाना क्या ?



इसे कहते है अच्छी खासी "मोटी" सैलरी के "सपने" पे पानी फेरना। 



----------------------चित्र गूगल महाराज की कृपा से सधन्यवाद प्राप्त 

Friday, 6 February 2015

फ़रवरी -रोमांटिक मंथ

फ़रवरी का महीना आमतौर पर बड़ा ही रोमांटिक महीना माना जाता है, आप मानो न मानो लड़कियाँ जरूर मानती है। और ख़ास बात यह है की इसी महीने में ज्यादातर "एडल्ट" और समझदार लोग अपनी समझदारी खोते है और शादी कर लेते है। माना जाता है की मौसम की खुशमिजाजी की वजह से इस महीने को "रोमांटिक मंथ" का ताज मिला है।
पश्चिमी सभ्यताओं की बात करे तो वेलेंटाईन डे भी फ़रवरी  महीने में इसीलिए मनाया जाता है क्योंकि इस समय मौसम बड़ा ही "प्रेमानुकूल" हो जाता है। हमारे देश के महान लॉजिकल लोगो ने तो यहाँ तक कह डाला है की १४ नोवेम्बर को बाल दिवस इसीलिए मनाया जाता है क्योंकि यह वेलेंटाईन डे के ठीक ९ महीने बाद पड़ता है।

आपमें से कईं सारे प्रेम-पंडित तो यह भी जानते होंगे की वेलेंटाईन डे से पहले पूरा वेलेंटाईन वीक मनाया जाता है। पुरे सप्ताह भर के दिवसों के नाम उन तमाम चीजो पर रखे गए है जो केवल लड़कियों को पसंद होती है।
जैसे रोज़ डे, प्रपोज़ डे, चॉकलेट डे, टैडी डे, प्रॉमिस डे, किस डे, हग दे  ओह्ह सॉरी "हग डे" इत्यादि। 

जनाब, अब तक की सारी फ़रवरी रोमांटिक रही होगी, परन्तु यह फ़रवरी तो कतई रोमांटिक नहीं है। २०१५ की फ़रवरी को शायद सबसे अनरोमांटिक महीना भी घोषित किया जा सकता है कुछ फेमिनिस्ट्स समर्थको के द्वारा। मेरा इशारा कुछ कुछ तो आप समझ गए होंगे। नहीं समझे तो सुनिए, लड़कियों को आमतौर पर २ चीजे सबसे ज्यादा इरिटेट करती है एक तो पॉलिटिक्स और दूसरा स्पोर्ट्स । और आजकल के लडको का रुझान स्पोर्ट्स के साथ साथ पॉलिटिक्स में भी बढ़ने लगा है। यहीं होता है "कनफ्लिक्ट ऑफ़ इंटरेस्ट"

अब आप समझे की फरवरी का महीना किस कदर अनरोमांटिक हो चला है। दिल्ली में चुनाव हो रहे है और तू-तड़ाक पुरे देश में हो रही है। स्वयं दिल्ली में BJP भर भर के AAP  को गालियां दे रही है तो AAP वाले भी ईंट का जवाब हथगोले से दे रहे है। कांग्रेस वालो को कोई भाव नहीं दे रहा तो वो जो मन में आये वो बके जा रहे है। सोशल मीडिया पर जो जंग चल रही है वहां भी अजय माकन की "विजिबिलिटी" उतनी ही है जितनी दिल्ली के कोहरे में किसी भी चीज की हो सकती है। 

दिल्ली के चुनाव खत्म होते ही क्रिकेट विश्वकप शुरू हो जायेगा, प्रेमी/प्रेमिकाओं के मिलन का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता यहाँ। वेलेंटाईन वीक की शुरुआत दिल्ली चुनावो से होगी और वेलेंटाईन डे आने तक प्री मैच /पोस्ट इलेक्शन एनालिसिस चलता रहेगा। ऐसे में आप सभी प्रेमी बंधुओ को सलाह दी जाती है की अपनी अपनी प्रेमिकाओं के साथ आदर से पेश आये, उन्हें किसी बात से ठेस न पहुचाये और हो सके तो उन्हें मायके / सहेली के घर भेज दे।

वैसे चलते चलते एक बात कहु, दिल्ली के चुनाव पुरे देश में इस कदर से ग़दर मचाये हुए है जैसे एक ही दिन में सलमान और शाहरुख़ की फिल्म रिलीज़ होने को है।  अब देखना यह है की किसकी बॉक्स ऑफिस रिपोर्ट दिल्ली का भविष्य तय करती है। ओह मैं तुषार कपूर को भूल ही गया वो भी अपनी फिल्म लेके आ रहा है उसी दिन।








Monday, 2 February 2015

टीवी का अत्याचार

आजकल चुनावो का मौसम चल रहा है और पार्टियां अपने अपने वादे-दावे ले ले कर जनता के पास जा रही है। परन्तु ८० प्रतिशत जनता को न फ्री wifi चाहिए, न फ्री पानी-बिजली चाहिए और न ही सस्ता पेट्रोल, उनकी तो एक ही मांग है की कैसे भी करके टीवी चैनल्स पर होने वाले भारी अत्याचार से मुक्ति दिलवा दो। अब यह और बात है की किसी भी पार्टी के नेता ने ऐसी किसी भी मांग को अब तक स्वीकार नहीं किया है। कैसे करे, आखिर नेता भी तो टीवी पर आ आ कर मासूम जनता पर अत्याचार ही कर रहे है।

एक समय था जब मर्द बीवी के अत्याचार से त्रस्त रहता था, परन्तु अब वही मर्द टीवी के अत्याचार से त्रस्त नज़र आता है। आपके घर में अगर एक भी महिला है तो आप ने यह दर्द कभी न कभी तो महसूस किया ही होगा जब आपको मन मार कर, खाना खाते समय,  टीवी पर बालिका-वधु जबरन देखना पड़ा होगा।

सीरियल किलर्स का ज़माना गया और किलर सीरियल्स का ज़माना है भाई लोगो।



अभी अभी तो लोगो ने ओबामा तक से विनती कर डाली की भैया हमारे देश की दूसरी समस्याएं तो जब ख़त्म होगी तब होगी, तुम आतंकवाद, पर्यावरण से निपटते रहना, पहले ससुराल सिमर का से निजात दिलाओ। 
आपकी भावनाओ का तो पता नहीं, परन्तु मुझे कभी कभी जेठालाल पर भी दया आती है जब उसकी "दया" को देखता हूँ, और तो और बेचारी बबिता, मासूम भोली बबीता, उसको तो कोई जेठालाल से बचा लो। तारक मेहता खुद जिनकी लेखनी इन सब की जिम्मेदार है वो भी अब मूह छुपाते घूमते होंगे अपने इलाके में। 

"साथ निभाना साथिया" और "यह रिश्ता क्या कहलाता है" जैसे धारावाहिको में दिखाए जाने वाले बेहद अमीर परिवार भी हमेशा समस्याओं से ग्रसित रहते  है। एक मुसीबत से निकलते ही दूसरी तैयार रहती है, बेचारो का कोई त्यौहार, कोई रस्म, कोई पूजा-पाठ ठीक से नहीं हो पाता, हर घडी कोई न कोई अड़चन आती ही रहती है। अगर हमें इनके अत्याचारों से नहीं बचा सकते तो इन बेचारे परिवारो को कोई तो मुक्ति दिलाओ इन दिनोदिन की बढ़ती मुसीबतो से। 

उधर बिग बॉस में "सलमान के वार " से बचे तो "फरहा खान" के अत्याचार से रूबरू हो गए, कोई तो पार्टी होगी इस चुनाव में जो बिग बॉस पर रोक लगाएगी। एक पार्टी ने तो दिल्ली में लाखो सी. सी.टी. वी कैमरे लगवाने का वादा किया है, मतलब पूरा दिल्ली अब बिग बॉस का घर होगी। समझ नहीं आ रहा ख़ुशी की खबर है या दुःख की। 

आज हमारे देश के युवाओ को ड्रग्स से जितना खतरा नहीं होगा उससे कहीं ज्यादा एम टीवी रोडीज़ से है, जो लगातार ८ वर्षो से एक से एक बेहतरीन चु*** (बीप बीप बीप ) खोज खोज कर दर्शको को परोस रहे है।  

अगर आपको लगता है की आपके दिमाग में ज्ञान का ओवरफ्लो हो चूका है तो आप उपरोक्त उल्लेखित धारावाहिको में से कोई भी एक देख लीजिये। इनसे बेहतर बुद्धिविनाशक और ज्ञान हारक चीज कुछ नहीं है। आप फिर से एक दम तरोताजा होकर ज्ञान की तलाश में निकल जायेंगे। 

 सुनने में तो यहाँ तक आया है की नरक लोक में पापियों को दी जाने वाली यातनाओं में फेर-बदल कर दिया गया है।  अब उन्हें गरम तेल की कढ़ाई में नहीं तला जायेगा, बलकि पाप के हिसाब से प्रतिदिन बिना विश्राम के उन्हें टीवी में यह सारे धारावाहिक एक के बाद एक दिखाए जायेंगे। इस बात से तो साबित हो गया है की आदमी को अपने पापो की सजा इसी जीवन में किसी न किसी चैनल पर भुगतनी पड़ेगी। 

और जब तक यह लेख पूरा होता उससे पहले ही एक खुश खबरी आयी है की अन्ना का अगला आंदोलन अब भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं, टीवी के अत्याचार के खिलाफ होगा। तो भाईयों इसी बात से हम आशा कर सकते है की इस आंदोलन के बाद भी एक और पार्टी बनेगी और उम्मीदों के मुताबिक हमारे लिए टीवी रोकपाल बिल लेकर आएगी। 

तब तक के लिए कोशिश करो की नया चैनल "एपिक" देखने को मिल जाये जो की फिलहाल सारे चुतियापे का एन्टीडोट है । 

नोट : लेख में प्रयोग की गयी मामूली अभद्र भाषा के लिए क्षमा, और अगर दी गयी गाली की तीव्रता कम लगे तो खुद से बढ़ा लीजिये। 



Friday, 23 January 2015

केवल वयस्कों के लिए

नोट: यह लेख कोई चुनावी स्टंट नहीं है, न ही किसी प्रकार का कोई प्रलोभन है, वास्तव में यह लेख उन्ही पाठको के लिए है जो १८+ उम्र के है या वयस्क है। अगर आप १८ साल से कम उम्र के है तो कृपया आगे न पढ़े।
धन्यवाद। 

बात थोड़ी पुरानी है, तब की जब मैं खुद वयस्क नहीं था। मैं अपने गांव के शासकीय हिन्दी माध्यमिक विद्यालय की कक्षा ४ का विद्यार्थी था। कुल जमा १४ विद्यार्थियों की कक्षा जिनमे से मात्र ३ कन्यायें। जी हाँ Gender Ratio की बात करने वालो यही हाल रहे है हमारे विद्यालयीन जीवन के अंत तक। खैर उस पर बाद में चर्चा करेंगे, बात करते है मेरे विद्यालय की, हमारा विद्यालय बहुपयोगी हुआ करता था। पुरे गांव भर के उत्सव, जलसे और १३वे का नुक्ता भी हमारे विद्यालय परिसर में होता था। और जिस दिन भी ऐसा कोई कार्यक्रम होता तो उस दिन आधी छुट्टी तो मिलती ही साथ ही साथ दावत अलग से मिलती। इतना ही नहीं, रात होते होते विद्यालय का मैदान भैंस, बैल, गाय और बछड़ो से भर जाता था। आप लोग जिन विद्यालयों में पढ़े होंगे वहाँ शायद शनिवार को आपका हॉफ डे हुआ करता होगा, परन्तु हमारे यहाँ मंगल-अमंगल कार्यक्रम के अलावा हर मंगलवार को भी हॉफ डे हुआ करता था। ऐसा इसलिए नहीं की हमारे प्राचार्य जी हनुमान जी में अगाथ श्रद्धा रखते थे बलकि प्रति मंगलवार हमारे गांव का प्रसिध्द पशु हाट बाजार लगता था। हाट में हमारा विद्यालय प्रांगण फिर एक बार काली चमकीली, रंगीन सींगो वाली भैंसो से, अतरंगी मुर्गो से, गाय बैल बछड़ो से और बकरे बकरियों से भर जाया करता था।



इतना ही नहीं, विद्यालय का इतना सदुपयोग होने के बाद प्रति रविवार हमारा विद्यालय हमारे गांव का स्वास्थ्य केंद्र बन जाया करता था। गांव के लोगो को हर प्रकार की दुःख तकलीफ की दवा मुफ्त में बांटी जाती थी। यह बात और है की गांव वालो की कुछ तकलीफे ऐसी है जिसकी कोई दवा आज तक नहीं बनी। तमाम मुफ्त में बांटी जाने वाली दवाईयों के पैकेट अगर बच जाते तो प्राचार्य के कक्ष में रख दिए जाते थे, परन्तु उस रविवार को प्राचार्य के कक्ष की चाबियां न होने से सारा सामान हमारी कक्षा में ही रख दिया गया।

आज जिस सोमवार को हम Bloody Monday कहते है, उस समय वही सोमवार हमें बड़ा अच्छा लगा करता था। आमतौर पर विद्यालय जल्दी पहुंच कर अपना बैग अपनी कक्षा में पटक कर प्रार्थना से पहले हम लोग सितोलिया खेला करते थे। उस दिन भी हम जल्दी पहुंचे और जब अपनी कक्षा में गए तो वहां कल के बचे हुए पैकेट रखे हुए थे। सरकारी विद्यालयों में इतना भी बुरा नहीं पढ़ाते की चौथी कक्षा तक आते आते हमें पढ़ना न आये। उन पैकेट्स पर लिखा पढ़ा तो टीवी पर आने वाला विज्ञापन याद आया, जो समाचार के पहले और चित्रहार के बीच में आया करता था और जिज्ञासाएँ जागृत कर जाता था। जिज्ञासा एक ऐसा कीड़ा है जो तब तक कुलबुलाता है जब तक की हम उसका कोई इलाज न ढूंढ ले। वो दवाई के पैकेट्स कुछ इलाज करे न करे पर हमारी उस टीवी के विज्ञापन की जिज्ञासा का इलाज जरूर थे। हमने तुरंत वो पैकेट्स खोले, और जब उनके अंदर रखे छोटे छोटे पैकेट्स  खोले तो हमारी जिज्ञासा शांत होने की बजाये बढ़ गयी थी।

अब जिज्ञासा यह थी की आखिर बच्चो के खेलने की चीज के विज्ञापन में बच्चे क्यों नहीं थे  दो बड़े लोग "प्यार हुआ इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यों डरता है दिल" गाना क्यों गाते थे। हालांकि एक बात समझ में आ गयी थी की डीलक्स निरोध और कुछ नहीं बलकि गुलाबी गुब्बारे हुआ करते थे। 


Thursday, 15 January 2015

जिंदगी के मासूम सवाल

सवाल जवाबो में उलझी इस जिंदगी में हम निरंतर जवाब देते हुए आगे बढ़ते रहते है। जिंदगी भी कभी चुप नहीं बैठती सवाल पे सवाल दागती ही रहती है। तभी तो परेशान होकर  गुलज़ार साहब ने लिखा "तुझसे नाराज नहीं जिंदगी, हैरान हूँ मैं, तेरे मासूम सवालो से परेशान हूँ मैं "

हमने जिंदगी के ऐसे ही कुछ "मासूम" से सवालो की एक सूचि संकलित की है जिनसे आपका पाला अवश्य ही पड़ा होगा। यह वो सवाल है जिनसे अरनब गोस्वामी भी एक बार तो परेशान हुआ ही होगा।




विद्यालय में पहली कक्षा से लेकर १२ वी कक्षा तक जो सवाल आपको बहुत तंग करते है उनमे से सबसे ऊपर है
 रिजल्ट कैसा रहा ? यह सवाल परीक्षा में पूछे गए सवालो से भी ज्यादा परेशान करता है। 
फिर 
क्या विषय ले रहे हो १०वी के बाद ? इस सवाल के जवाब में हम और हमारे घरवाले कभी एक मत नहीं होते। 

फिर जैसे तैसे १२वी हो जाये तो

कौन से कॉलेज में एडमिशन ले रहे हो ? (अगर कोई ढंग का कॉलेज मिल जाये तो ठीक नहीं तो अगले ३-४ साल भुगतो इस सवाल और इसके जवाब को )

फिर रिजल्ट कैसा रहा ? ( हर सेमेस्टर/साल, घूम के फिर यही सवाल आ ही जाता है )
अब कॉलेज जाना शुरू हो गया, और गलती से थोड़ा बन-ठन के निकले तो जो सवाल तैयार रहता है वो है 
किसी के साथ कोई चक्कर तो नहीं चल रहा ? ( यह सवाल डायरेक्ट नहीं पूछा जायेगा, घुमा फिरा के पूछेंगे)

कॉलेज खत्म होते होते अगला भयानक प्रश्न तैयार हो जाता है 
प्लेसमेंट हुआ ? कहाँ हुआ ? ( घरवालो से ज्यादा पड़ौसी चिंतित रहते है, जैसे उनके घर राशन नहीं आएगा अगर मेरा प्लेसमेंट नहीं हुआ तो )
हो गया तो नेक्स्ट क्वेश्चन 
कितना पैकेज है ? ( "बस इतना हमारे साढू के भतीजे का तो इतना है", अरे कितना भी हो कौनसा तुम्हारे अकाउंट में जाने है  )

फिर जैसे तैसे नौकरी मिल भी गयी तो हमारे ही अन्य दोस्त जो हमारी ही कंपनी में या अन्य कंपनी में काम कर रहे होते है, पूरा साल एक ही सवाल करेंगे,
अप्रैज़ल हुआ ? कितना हाईक मिला ?

और गलती से आप आय. टी. में हो तो तैयार रहो की साल में १२ बार यह सवाल भी आपको तंग करेगा की "फॉरेन-वॉरेन गए की नहीं एक बार भी "

फिर जिंदगी का सबसे ज्यादा दोहराने वाला और सबसे ज्यादा चिढ दिलाने वाला प्रश्न जो आपके जीवन से जुड़ा हर व्यक्ति आपसे पूछेगा
शादी कब कर रहे हो ?
शादी कब कर रहे हो ?
शादी कब कर रहे हो ? ( हर बार, हर कोई पूछेगा, जब तक की हो नहीं जाती,  इस सवाल पर तो पूरी किताब लिखी जा सकती है )

झल्ला के ही सही आप शादी कर लेते है और उसके तुरंत बाद, अगला यक्ष प्रश्न हाजिर हो जाता है
खुशखबरी कब दे रहे हो ? ( पहले साल )
खुशखबरी कब दे रहे हो ? ( दूसरे साल )
इस साल तो हो ही रहे हो न दो से तीन ( हर साल, जब तक की तीसरा आ नहीं जाता ) 
और जहाँ हमें एक खुशखबरी देने में १० बार सोचना पड़ता है वही हमारे नेता ४-४, ५-५ खुशखबरी देने को बाध्य कर रहे है। 

और खुशखबरी देने के २-३ साल बाद 
कौनसे स्कूल में डाल रहे हो ? (और गलती से आप पूछ लो की आप ही बताईये, तो तैयार रहिये रायचंदो से निपटने के लिए)

यह तो वो प्रश्न थे जो की दोस्त, रिश्तेदार, पड़ौसी, माँ-बाप, और भाई बहन आपसे पूछते रहते है। इनके तो आप जवाब भी दे सकते हो, तुरंत न सही थोड़ा वक्त लेकर। किन्तु कुछ सवाल ऐसे है जिनका जवाब आजतक नहीं खोजा जा सका है, और कोई जवाब देता भी है तो सीधे सीधे नहीं दे सकता। पहले तो सवाल ही कठीन और दूसरा यह सवाल पूछे जाते है आपकी धर्मपत्नी के द्वारा। याने की करेला वो भी नीम चढ़ा। 

तो दोस्तों पेश के जिंदगी के सबसे बड़े और खतरनाक २ सवाल जिन्होंने लगभग हर इंसान को एक बार तो परेशान किया ही होगा।

१. जानू, मैं सच में मोटी लगती हूँ ? ( सच कहो या झूठ या डिप्लोमेटिक हो जाओ, मेरे ख्याल से चुप रहना ज्यादा बेहतर है। )

और

२. आज खाने में क्या बनाना है ?(बाकी के सवाल तो कभी न कभी पीछा छोड़ ही देते है, परन्तु इस सवाल का हमारे जीवन से वैसा ही नाता है जैसा केजरीवाल का टीवी से, कांग्रेस का घोटालो से और मोदी का माइक से)



ऐसे ही आपके कोई पर्सनल सवाल हो जो इस सूचि में न हो और आपको लगता है की वो भी जीवन के सबसे जटिल प्रश्नो में से एक है तो कमेंट करिये। 

Monday, 12 January 2015

नाम में क्या रखा है

"नाम में क्या रखा है ?" शेक्सपियर तो इतना कहके निकल लिए, उनको क्या मालूम था की यहाँ भारत में नाम के पीछे कितना कोहराम है।
स्रोत: गूगल इमेज सर्च 


आजकल के लेखक, पत्रकार, दार्शनिक भी जब कुछ लिखते है तो नायक नायिका के नाम लेने से परहेज करते है। बेवजह का "साम्प्रदयिक" तनाव पैदा हो सकता है इसीलिए कोई नाम नहीं लेता। यहाँ तक की पुलिस थाने में भी रिपोर्ट "अज्ञात" लोगो के नाम की लिखी जाती है, फिर भले ही सबूत के तौर पर पेश किया गया वीडियो चिल्ला चिल्ला के अपराधी का नाम ज़ाहिर कर रहा हो।

खैर इन सब के बारे में आप सब जानते हो, मैं आपको नामो की वजह से होने वाली एक अलग ही वैश्विक समस्या से आपको अवगत कराने की मंशा रखता हूँ। हालाँकि आप में से अधिकांश लोगो को यह समस्या झेलनी पड़ी होगी।

जवान हो, अपने पैरो पर खड़े हो तो घरवाले आप पर सबसे बड़ा दबाव डालेंगे की शादी कर लो, वो भी हो गया तो सालभर के भीतर आप पर एक नया दबाव आ जायेगा, २ से ३ होने का। कहीं कहीं तो मैंने यह भी सुना है की एम्प्लोयी ने इन्ही सब बातों का रोना रोकर अपने मैनेजर को इतना इमोशनल ब्लैकमेल किया की उसको सैलरी हाईक मिल गयी। खैर आप २ से ३ भी हो गए, अब आपके सामने सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है की डाइपर कौन बदलेगा, न ही इस बात की चिंता है की रात रात भर जाग के दूध की बोतल कौन भरेगा बल्कि सबसे बड़ी चिंता का विषय है की इस नए मेहमान का नाम क्या रखे ?

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आज के जमाने में "यूनिक" नाम रखने का चलन है। लोग अपने पालतू पशुओ का नाम भी मोती, ब्रूनो, टाइगर या शेरू नहीं रखते बल्कि यूनिक सा अंग्रेजी सा कोई नाम ढूंढ़ते है। बात खुद के बच्चे की हो तो नाम थोड़ा ख़ास ही ढूंढ़ना पड़ता है और ये यूनिक नाम ढूढ़ने पर भी नहीं मिलते। हालांकि कई माँ-बाप तो अपने खुद के नामो के प्रथम २ अक्षरो की संधि करके ही यूनिक नाम बना लेते है।  परन्तु हर पति पत्नी ऐसा नहीं कर सकते तो ऐसे में बेचारा पति सारी  रात इंटरनेट पर सर्च करके कोई "भल्ता सा" ही सही पर यूनिक नाम ढूंढ़ता है तो पत्नी कहती है, नहीं यह नाम तो मेरी मौसी की बेटी के देवर के बच्चे का भी है, कोई "यूनिक" नाम ढूंढो। फिर जाके २-४ "बेबी नेम्स" वाली किताब खरीद के लाते हो, फिर भी मनपसंद नाम तो किसी के भाई के साले के बच्चे का निकलता है तो कोई नाम दोनों पति पत्नियों में से किसी के दोस्त अपने बच्चो को दे चुके होते है । हजारो नाम खारीज़ करने के बाद बड़ी मशक्कत से एक यूनिक नाम आप ढूंढते हो। अब आप सेलिब्रेशन की तैयारी कर ही रहे होते हो की आपके घरवाले जाके किसी पण्डित से बच्चे की कुंडली बनवा आते है और नाम का अक्षर तय हो जाता है की अब नाम तो इसी अक्षर से शुरू होगा। फिर शुरू होती है वही कहानी, गोल गोल धानी और इत्ता इत्ता पानी।



मेरे एक परिचित ने तो यूनिकनेस के चक्कर में कंफ्यूज होके अपने बच्चे का नाम "चमन" रख दिया तो उसके पहले जन्मदिन पर आये मेहमानो ने जैसे तैसे समझाया की कैसे तुम अपने ही बच्चे को उसके बाप का कतल करने के लिए उकसा रहे हो।  अभी अभी मेरे एक बहुत खास और बहुत ही कांग्रेस विरोधी दोस्त ने अपना खुद का ही नाम राहुल से बदल के वरुण रख लिया है।

क्या आप अब भी कहेंगे की नाम में क्या रखा है ? अब तो शेक्सपियर भी अपने शब्द वापस लेने को तैयार होंगे।

देश भक्ति

  देश भक्ति , यह वो हार्मोन है जो हम भारतियों की रगो में आम तौर पर स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस  या भारत पाकिस्तान के मैच वाले दिन ख...