Wednesday 7 January 2015

पिके का विरोध - in Cut to cut style


फिल्म "पीके" पर इतनी प्रतिक्रियाएँ, टिप्पणियाँ आ चुकी है मार्केट में की इस पर कुछ भी लिखना क्लीशे होगा। फिर भी आज बैठे बैठे सोचा की क्यों न मैं भी अपनी आपत्ती दर्ज करवा ही दूँ। क्योंकि आजकल अगर किसी न किसी चीज का विरोध न करो तो लोग बेवकूफ समझते है। इसलिए मैं अपना ऑनलाइन प्रोटेस्ट करता हूँ "पीके" के खिलाफ।



इस फिल्म में एक गाना है "बिन पूछे मेरा नाम और पता, रस्मो को रख के परे , चार कदम बस चार कदम चल दो न साथ मेरे" . 

एक फुल टाइम फुल्ली कमिटेड पति होने के नाते इस गाने से मेरी भावनाएं आहात हुयी है जनाब। नायक पहली ही मुलाकात में नायिका को पटाने के लिए गाना गाता है और कहता है की मेरा नाम पता पूछे बिना ही मेरे साथ २-४ कदम चल लो। हद्द है यार, यहाँ अगर हमें शादी करना हो या लड़की पटाना हो तो नाम पता तो ठीक है अपनी जनम कुंडली, बैंक बैलेंस, मंथली इनकम से लेकर अपनी पैथोलॉजी रिपोर्ट्स तक दिखानी पड़ती है और तुम नाम पता भी नहीं बता सकते। फिर अागे कहता है की रस्मो को परे रख दो, बोलो यार यहाँ हम सारी रस्मे, कस्मे और वादें निभाते रहे जीवन भर, और अगर कोई छोटा मोटा वादा न निभा पाये तो सजा भी भुगते। सिर्फ यहीं तक मेरी भावनाएं आहात नहीं हुयी इसके आगें तो नायक कहता है की बस चार कदम चलदो साथ मेरे। कहिये, यहाँ हम सात सात जन्मो की कसम खाके एक ही नायिका के साथ बंधे हुए है और यह हर चार कदम में नयी नायिका चाहता है वो भी बिना कोई कमिटमेंट के, वाह भाई वाह।


बात सिर्फ इतनी ही होती तो जैसे तैसे ठंडा पानी पिके (पीने वाला पिके, फिलम वाला नहीं) हम काम चला लेते परन्तु नायक यहीं रुका नहीं इसके आगे सुनिए।  कहता है बिन कुछ कहे बिन कुछ सुने मेरे साथ चलदो, अब आप ही बताओ आप में से किसकी गर्लफ्रैण्ड या बीवी आपसे बिन कुछ कहे आपके साथ चलने को राजी हो जाती है ? कब हुआ था आखिरी बार ऐसा की आप कही गए हो ४ कदम ही चले हो और वो "चुप" रही हो ?

एक कमिटेड पुरुष होने के नाते हम इस गाने का विरोध करते है साहब। इतना ही नहीं, गाना खत्म होते होते नायिका अंत में कह ही देती है "चार कदम ही क्या, सारी उम्र चल दूंगी साथ तेरे" तब जाकर राहत की साँस लेता हूँ मैं की चलो ये नायिका भी उमर भर चिपकेगी इसके साथ।

वैसे चलते चलते इस गाने के अलावा एक और चीज से मेरी उम्मीदों को ठेस पहुंची है और वो यह की नंगा पुंगा एलियन दोस्त आमिर ही क्यों कटरीना क्यों नहीं ??

Friday 26 December 2014

मॉल की सैर


देखो यार हम बड़े शहरों में रहने वाले लोग है, छुट्टी मिले तो उठ के रिश्तेदारो या दोस्तों के घर नी जा धमकते और ना ही शहर के किसी छोटे मोटे टॉकीज में या बगीचे के चहलकदमी करके आते है। भिया यार हम मॉल जाते है सीधा , क्या समझे ?
नी  समझे तो समझाते है, क्या है की छुट्टियों का मौसम चल रिया है और लोग बाग़  हिल स्टेशन, समुन्दर पे , या किसी रिसोर्ट में अपनी छुट्टियां मना रहे है और सब जगह के होटल मानो ओवरफ्लो हो रहे है। और तो और सडको पे भी जाम लगा पड़ा है तो जो जगह एक दिन में घूम के आ सको वहां भी नी जा सकते। यही बात इस क्रिसमस पे हमने अपनी बेग़म साहिबा को समझाई, जो वो समझ भी गयी(शायद)। लेकिन अब छुट्टी के दिन सारा दिन घर बैठ के बीवी की गालियां भी तो नहीं सुन सकते ना। हमने यह भी समझाया की अभी भीड़ भाड़ वाली जगहों पे नहीं जा सकते, आतंकवादियों का हमला हो सकता है इस लिए आराम से घर पे ही तुम दाल-बाटी बनाओ और अपन टीवी देखते है । इसके बाद तो जो हमला हुआ हम पे उससे तो आतंकवादियों का हमला ही हमें बेहतर लगा सो हम चुपचाप अपनी दुपहिया पे बेग़म को बिठा के निकल पड़े।

अब साब बड़े शहरों में घूमने के लिए ले देकर मॉल ही होता है जहाँ जाके आटे-दाल के भाव पता करके आ जाओ बस।  हम भी गए, क्रिसमस का दिन था, सड़के जाम शहर में भी थी, शायद आधा शहर हमारी तरह होटल का ओवरफ्लो देख के कही नहीं गया था। मॉल पहुंचे तो गेट के बाहर इतनी भीड़ थी मानो भीतर माता रानी का भण्डारा चल रहा हो। ऐसी भीड़ तो यार भिया हमने अपने इंदौर में १५ अगस्त और २६ जनवरी को चिड़ियाघर के बाहर ही देखी थी अब तक क्योंकि साल के इन २ दिनों को मुफ्त एंट्री होती है । जैसे तैसे हिम्मत करके हम अपनी दुपहिया और उसपे बैठी हमारी बेग़म को धकेलते हुए पार्किंग के गेट तक पहुंचे और २० रुपये का टिकिट कटा के तलघर में जगह ढूंढ के दुपहिए को टिका दिए।

मॉल के अंदर घुसे तो पाया की  जिधर देखो उधर लोगो की भीड़ ही भीड़, वाइफ बोली " लो देखो जब सारा शहर पहाड़ो पे, समुन्दरो पे घूमने गया तो यहाँ क्या ये भूत घूम रहे है ? " हमने थोड़ा झेम्प के कहा की भई शहर की पापुलेशन ही बहुत है क्या करे। आगे बढे तो देखते है की लोगो के हाथो में शॉपिंग की थैलियों की जगह कैमरा था, जिसे देखो वो अपने हाथो में कैमरा लिए क्लिक क्लिक किये जा रहा था, किसी के हाथो में अमेरिका से आने वाले दोस्तों से मंगाया हुआ सस्ता DSLR था तो किसी के हाथो में उन्ही अमरीकी रिटर्न दोस्तों से मंगाया हुआ  महंगा आईफोन था। इन सब कैमरामैन को देख के ऐसा लग रहा था की सब किसी जंगल में जानवरो के साथ अपनी फोटो खिंचाने आये हो या किसी दरिया किनारे बर्ड वाचिंग करने।  खैर सही भी था कुछ लोग सच में अपने लम्बे लम्बे ज़ूम कैमरों से "बर्ड वाचिंग" ही कर रहे थे। दिसंबर की ठण्ड और मॉल का AC भी किसी काम का न था, इतनी "हॉटनेस" बिखरी पड़ी थी मॉल में।

अपने हाथो में न तो शॉपिंग बैग था न कोई कैमरा, था तो सिर्फ अपनी इकलौती बीवी का हाथ और उसका प्यारा साथ, बस उसी को जकड़े हुए हम उस भीड़ भड़ाके में घूमते रहे। एस्कलेटर पर ऊपर चढ़ते हुए अचानक से एक अनाउंसमेंट हुआ " मि. रोहित आप जहाँ कहीं भी है तुरंत हेल्प डेस्क के पास आये यहाँ आपकी बीवी मिसेज़ नेहा आपका वैट कर रही है " और एक बार नहीं २-३ बार यह उद्घोषणा की गयी। हमें तो उस बेचारे रोहित पर तरस आने लगा की कही वो "बर्ड वाचिंग" के चक्कर में अपनी बीवी से भटक न गया हो, और भटक के अब मिल भी गया तो अब उसका घर पहुंच के क्या हाल होगा ? क्या वो सही सलामत घर पहुंच भी पायेगा, उसकी बीवी नेहा उसका क्या हाल करेगी ? यह सब सोच सोच के हमारे रोंगटे खड़े हो रहे थे और हमने अपनी बीवी का हाथ कस के पकड़ लिया। उसने एक प्यारी से स्माइल देते हुआ धीरे से कहा "हाउ रोमेंटिक …… आपने सरे आम मेरा हाथ यूँ पकड़ा", हमने भी वही स्माइल उन्हें लौटाते हुए हाँ में मुंडी हिला दी। उन्हें क्या पता की हमने इतना कस के हाथ पकड़ा इसके पीछे कोई रोमेंटिक ख्याल नहीं भयानक वाली फीलिंग थी। खैर आगे बढ़ते हुए दुकानो पे नज़र दौड़ाते हुए हलकी फुलकी बर्ड वाचिंग हमने भी कर ही ली।


इतना घूमने के बाद अब भूख सी लग पड़ी थी सो हमने सोचा क्यों न थोड़ा बहुत यहीं कुछ खा लें, हालांकि यहाँ मॉल का खाना होता तो अपने बजट से बाहर ही है पर फिर भी थोड़ा सा "चख" लेंगे। यही सोच के फ़ूड कोर्ट पहुंचे तो देखते है की यहाँ भी लोग ऐसे टूटे पड़े है दुकानो पे जैसे फोकट में बँट रहा हो, बैठने तक की जगह नहीं, जहाँ मिले वंही टिक के जो मिला वही ठूंसे जा रहे थे सभी। हमने "सब वे बर्गर" वाले के बाहर निचे बालकनी की रेलिंग की सीढ़ी पर लोगो को बर्गर खाते देखा तो इंदौर के अन्नपूर्णा और खजराना मंदिर की याद आ गयी, वहां भी ऐसे ही लोग सीढ़ियों पे बैठ के जो मिले वो खाते दिख जायेंगे। बस फर्क इतना सा है की वहाँ वो लोग जेब से एक फूटी कौड़ी नहीं निकालते और यहाँ यह लोग सैकड़ो रुपये देके खा रहे है।

थोड़ी ही देर में हम दोनो भी ऐसे ही रेलिंग की सीढ़ी पर बैठ कर अपना बर्गर खा रहे थे या यूँ कहे की "चख" रहे थे तभी एक और उद्घोषणा हुयी की "मिस्टर केशव रंजन आप जहाँ कहीं भी है तुरंत हेल्प डेस्क काउंटर पर आये, यहाँ आपकी वाइफ मिसेज़ कृति रंजन आपका वैट कर रही है"




नोट :  चित्र फ़ीनिक्स मॉल, पुणे के फेसबुक पेज से साभार लिए गए है। 


Wednesday 17 December 2014

हैप्पी न्यू ईयर


वर्ष २०१४ संपन्न होने जा रहा है। हर साल की तरह यह साल भी बहुत सारी बातो के लिए याद किया जायेगा। इस साल आपके जीवन में भी तो कुछ ऐसा घटित हुआ ही होगा जिसे आप भूल नहीं पाओगे।

आईये इससे पहले की दुनिया भर के टीवी चैनल्स बीते हुए साल का एनालिसिस करे हम भी कुछ चिर-फाड़ कर डालते है थोड़े कट-टू-कट अंदाज़ में।

हम भारतियों की एक बात तो छुपाये नहीं छुपती और वो है बॉलीवुड और क्रिकेट प्रेम, तो चलिए इस बीते साल का मुआईना करते है इसी साल रिलीज़ हुई बॉलीवुड फिल्मो के "टाइटल" के आधार पर।

हम लेकर आये है कुछ चुनिंदा फिल्मे जिनके टाइटल इस साल के महत्वपूर्ण इवेंट्स को समर्पित है।


१. टोटल सियापा 

साल की शुरुआत हुई एक फिल्म "टोटल सियाप्पा" से जो की समर्पित है " आम आदमी पार्टी" और केजरीवाल साब को जिन्होंने इस साल सियाप्पे के सिवा कुछ नहीं पटका। पहले दिल्ली में उम्मीद बंधवाई फिर उस बंधी हुई उम्मीद को छोड़ के लोकसभा के पीछे भागे और फिर लौट के दिल्ली में सियाप्पे किये जा रहे है।


२. जय हो 
अगली है सलमान की फिल्म  "जय हो"  और यह फिल्म बहुत कुछ हद तक नरेंद्र मोदी की तरफ इशारा करती है  जिनके लिए इस साल हर जगह एक ही नारा गूंजा है और वो है "जय हो।" न केवल मोदी बल्कि भारतीय खेल जगत ने भी इस साल कॉमनवेल्थ और एशियन गेम्स में "जय हो" का नारा लगवाया।  यही नहीं जय हो का टाइटल हमारे देसी नासा याने की इसरो को भी मिलता है जिन्होंने इस साल दुनिया का सबसे सस्ता मंगलयान अंतरिक्ष में छोड़ा।


३. बेवकूफियां 
जी हाँ यह फिल्म समर्पित है हमारे देश के प्यारे राहुल गांधी को जिन्होंने इस साल भी अपने हर भाषण में कुछ ऐसा किया और कहा जिससे इनकी बेवकूफियों के पुराने रिकॉर्ड भी ध्वस्त हो गए।


४. दावत-ऐ-इश्क़ 
हमारे प्रधानमंत्री ने प्यार का सन्देश देने के लिए अपनी शपथ ग्रहण समारोह में सारे पड़ौसी देशो को दावत दी थी और इस दावत का एक ही उद्देश्य था की आपसी तकरार कम हो और प्यार बढे।  इसीलिए परिणीति चोपड़ा की फिल्म का टाइटल इस शपथ ग्रहण समारोह को दिया जाता है।

५ . २ स्टेट्स 

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जो की पहले संयुक्त राज्य हुआ करते थे इसी साल १ से २ स्टेट्स बन गए और इसीलिए इस साल की इस हिट फिल्म का टाइटल समर्पित है इन राज्यों को।


६ . क़्वीन 
दर-असल यह टाइटल हमारे देश के किंग के लिए है मेरा मतलब हमारे प्रधानमंत्री के लिए है , जिस तरह से फिल्म में नायिका अपने हनीमून पर अकेली विदेश यात्राओ पर निकल पड़ती है ठीक उसी प्रकार इस साल हमारे पी. एम साब ने भी ताबड़तोड़ विदेश यात्रायें करी है और वो भी अपनी सरकार के हनीमून पीरियड में। इसीलिए यह टाइटल जाता है हमारे पी.एम. साब को।

७ . गुलाब गैंग 

आप सबने रोहतक की घटना तो सुनी ही होगी, और इस घटना के कितने सारे पहलु सामने आये यह भी आप जानते होंगे। इस घटना का सच जो भी हो किन्तु उन दो बहनो के लिए माधुरी दिक्षित अभिनीत फिल्म का टाइटल "गुलाब गैंग" हम जरूर इस्तेमाल कर सकते है।

८ . गुंडे 

यह शीर्षक और इसके कई पर्यायवाची शीर्षक से हर साल फ़िल्मे आती है और हर साल देश दुनिया में कितनी ही हरकते ऐसी होती है जिनके लिए यह टाइटल बना है। किसी विशेष घटना या विशेष अपराधी को यहाँ अपने लेख में जगह देकर उसको यह टाइटल समर्पित नहीं करूँगा।  बस इतना कहूँगा की आप इस किसी की भी हरकतों को नजरअंदाज न करे क्योंकि हम जिन लोगो  की  छोटी छोटी गलतियों को नज़रअंदाज करते रहते है वही लोग आगे चलकर "गुंडे" बनते है।


९   . क्या दिल्ली क्या लाहोर 

हर साल की तरह इस साल भी बनते बिगड़ते रिश्तो के बीच दोनों देशो की जनता सिर्फ यही कहती रह गयी की साब अब तो क्या दिल्ली क्या लाहोर। यह फिल्म का शीर्षक समर्पित है भारत-पाकिस्तान के रिश्ते को।

१०   .हेट स्टोरी -२ 

इस फिल्म का टाइटल दिया जाता है हमारे देश के कई सारे नेता/वक्ताओं/धर्म के ठेकेदारो को जो हर साल की तरह इस साल भी अपनी ज़हरीली वाणी से समाज में नफरत का विष घोलने से पीछे नहीं हटे। हम आशा करते है की हेट स्टोरी २ से अब हेट स्टोरी ३-४-५ इत्यादि न बने इस देश में।

११  . अमित साहनी की लिस्ट 

जी इस टाइटल को हम थोड़ा इस प्रकार कह सकते है "भारत सरकार की लिस्ट" जो की समर्पित है उस लिस्ट को जिसमे  ६२७ वो नाम है "जिनका नाम नहीं लेते" मेरा मतलब है जिनका नाम कोई नहीं लेता।  यह वो नाम है जिनका असीमित धन देश के बाहर की तिजोरियों में जमा है, जी जनाब मैं काले धनवानों की लिस्ट का जिक्र कर रहा हूँ।

चलिए हंसी मजाक बहुत हुआ, देश दुनिया के परिदृश्य में इस साल बहुत उथल पुथल हुई और हर घटना को महज एक बॉलीवुड फिल्म के टाइटल से प्रदर्शित करना आसान नहीं है। जब कही कुछ अच्छा होता है तो कही बहुत अच्छा भी होता है और जब कही कुछ बुरा होता है तो कही बहुत बुरा भी होता है।
फिल्मो की इस लिस्ट की अंतिम फिल्म का टाइटल हमने कुछ बहुत बुरे को प्रदर्शित करने के लिए इस्तेमाल किया है। हालांकि फिल्म बहुत बुरी नहीं है हम सिर्फ इसका टाइटल इस्तेमाल कर रहे है।

१२  . बैंग - बैंग 

इस साल भी भारत पाकिस्तान सीमा पर, नक्सली क्षेत्रो में और उत्तर-पूर्वी राज्यों में भीषण गोलीबारी और बम धमाके हुए जिनमे सैकड़ो निर्दोष लोगो और सैनिको की जाने गयी।  यही नहीं पुरे विश्व में अमरीका से लेके ऑस्ट्रेलिया और इराक़ से लेके पाकिस्तान तक हर जगह आतंकवादियों ने कहर बरपाया।  ईश्वर से प्रार्थना है की इस साल की समाप्ति के साथ ही ये बैंग बैंग भी समाप्त हो जाये और अगला साल पुरे विश्व के लिए "हैप्पी न्यू ईयर" बन के आये इसी के साथ अब हम इस लेख की "हैप्पी एंडिंग" करते है और आपको आने वाले साल के लिए ढेरो शुभकामनायें देते है ।
और आप लेख पर अपनी प्रतिक्रियाएं अवश्य ज़ाहिर कीजियेगा।
जय हिन्द।

नोट: कुछ फिल्मे सिनेमा स्क्रीन के साथ ही हमारे ज़ेहन से भी उतर जाती है इसीलिए हमने यहाँ उनके पोस्टर्स भी चिपकाएं है ताकि आपको याद आजाये की हम किस फिल्म की बात कर रहे है।  सभी चित्र गूगल इमेज सर्च के सौजन्य से। 




Friday 12 December 2014

कांग्रेस मुक्त भारत




अभी अभी कुछ दिनों पहले सुनने में आया था की हैदराबाद के हवाई अड्डे  का नाम "राजीव गांधी हवाई अड्डे "  से बदल कर N.T.रामाराव  हवाई अड्डा रख दिया गया है। खबर सुनकर राजनितिक गलियारों में हड़कम्प मच गया था , खासकर कोंग्रेसियों के तो पेट ज्यादा खराब हो गए। वैसे भी कोंग्रेसियों के पास है ही क्या "इन ३ नाम" के अलावा ?

खैर जब इस खबर को खंगाला गया तो मेरे ख़ुफ़िया सूत्रों ने जो बात बताई वो बड़ी ही चौंकाने वाली है, हाँ आप भी चौंक जाओगे , दर-असल हवाई अड्डे का नाम बदलने के पीछे मोदी जी का हाथ है , जी हाँ भाई साब पुख्ता खबर है।  कुछ महीनो पहले के उनके भाषणो को याद करो तो आपको याद आएगा की मोदी जी ने हर जगह लगभग हर दिन एक नारा जोर जोर से लगाया था और वो था "कांग्रेस मुक्त भारत" का नारा।

आदरणीय केजरीवाल जी ने भी अपनी मुहर लगा दी है  इन सब के पीछे मोदी जी और अडानी /अम्बानी का हाथ है , एक गजेटेड ऑफिसर के द्वारा अटेस्टेड होने पर यह खबर और भी पुख्ता बन गयी है।

अब देश में कांग्रेस के पास ले देकर पूर्वजो (जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी) के नाम के अलावा कुछ बचा नहीं , और अगर कांग्रेस को जिन्दा रखना है तो इन नामो को जिन्दा रखना होगा, इसीलिए सोच समझ कर पिछली कांग्रेस सरकारों ने देश में ४५० से ज्यादा सरकारी योजनाओ,  भवनो, सडको , विश्वविद्यालयों इत्यादि के नाम इन तीन लोगो के नाम पर ही रखे है , ताकि इनके नाम पर ही सही लोग कांग्रेस को "कुछ अच्छे" के लिए याद रख सके।

Pic Courtesy  A Suryaprakash


किन्तु मोदी जी ने तो देश को कांग्रेस मुक्त करने की मानो शपथ सी ले रखी है। इसीलिए यह शुरुआत है की सबसे पहले सरकारी योजनाओ को गांधी-नेहरू परिवार के नाम से मुक्त किया जाये, फिर धीरे धीरे एयरपोर्ट, पोर्ट , स्टेडियम, सड़क, चौराहो और विश्विद्यालयों के नाम से नेहरू-गांधी हटाया जायेगा।

हैदराबाद में एयरपोर्ट का नाम बदल के कुछ हद तक कांग्रेस मुक्त भारत की और एक कदम उठा लिया है मोदी सरकार ने।  हमारे ख़ुफ़िया सूत्रों ने तो यहाँ तक खबर दी है की जल्द ही सरकार एक विधेयक लाने  वाली है जिसके तहत देश में जिसका भी नाम राजीव, राहुल, सोनिया, प्रियंका या रॉबर्ट (वैसे भी आजकल जवाहर, और इंदिरा नाम कोई नहीं रखता) होगा उसको सरकारी सुविधाओं से वंचित रखा जायेगा, उन्हें अपना नाम बदलना होगा। यही नहीं किसी ने अपने बच्चे का नाम इनमे से कुछ रखा तो उसे जन्म प्रमाण पत्र, आधार कार्ड, पैन कार्ड, या पासपोर्ट जारी नहीं किया जायेगा।  यह सब महत्त्वाकांक्षी योजनाएं अभी मोदी सरकार के मंत्रीगण  बना रहे है और जल्द ही इन्हे मोदी जी के समक्ष प्रस्तुत करके वाह वाही लूटने की तैयारी में है।

तो दोस्तों तैयार हो जाओ कांग्रेस मुक्त भारत के लिए।  अरे अरे.…………  अभी अभी एक और ख़ुफ़िया खबर आयी है की दिग्विजय सिंह ने राहुल गांधी को सुझाओ दिया है की वो "गांधी" सरनेम का पेटेंट कांग्रेस के नाम पे रजिस्टर करवा के कॉपी राइट लेले ताकि कोई और इसका फायदा न उठा सके।  सुना है की राहुल बाबा ने बात को मानते हुए अर्ज़ी दे दी है।  अगर ऐसा हो जाता है तो गांधी सरनेम वाले सभी लोग कांग्रेस की अधिसंपत्ति माने जायेंगे, .......ओह्ह्ह ...... फिर मेनका और वरुण का क्या होगा ?

खैर जो भी हो आप हमारे साथ लगातार लगातार बने रहिये, आपको लेटेस्ट अपडेट के साथ सरकार के अंदर की खबर देने फिर आएंगे, तब तक के लिए गुड नाईट।

डिस्क्लेमर: उपरोक्त लेख लिखते समय लेखक ने ४ बोतल वोडका अपने गले में उँडेली हुयी थी और उसकी टेबल पर ४ रैपर भांग की गोली के भी पाये गए थे। और जब तक मैंने यह लेख ब्लॉग पर डाला तब तक भी लेखक को होश नहीं आया था।




Thursday 4 December 2014

एक बंधुआ मज़दूर की कहानी

 क्या आप भगवान या भाग्य में यकीन रखते है ?

आप कहोगे की आज यह कौनसी बेतुकी बात कर रहे हो , खुद की मेहनत और हुनर के सिवा किसी पे यकीन करना बईमानी है। पढ़े लिखे नवजवान जो ठहरे आप, ऐसा ही सोचना होगा आपका, है ना ? अब भइया हम आपको एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी सुना रहे है,  मतलब पढ़वा रहे है।  इसको पढ़कर आपको यकीन हो जायेगा की गरीब, ईमानदार और मेहनती लोगो को उनका ईश्वर उन्हें न्याय जरूर दिलाता है।

यह घटना मध्यप्रदेश  के एक छोटे से गाँव की है, गाँव मे अधिकांश लोग किसान है और सब के सब बड़े किसान है और उँची जाती से है तो ज़ाहिर सी बात है की खेतो में काम करने के लिए मज़दूर मिलना बहुत मुश्किल होता होगा किसानो के लिए। इसीलिए मज़दूरी के लिए बाहर से लोगो को लाया जाता है और अपने खेत पर रख कर साल भर काम करवाया जाता है।

ऐसे ही एक बड़े किसान परिवार जिसका मुखिया है रामप्रसाद ने मध्यप्रदेश के नीमाड क्षेत्र से एक मजदूर परिवार जिसका मुखिया है मोहनलाल  को अपने यहाँ लगभग बंधुआ मजदूर की हैसियत से रखा हुआ था। नाम मात्र का वेतन और खूब सारा काम करवाया जाता था उनसे. मोहन का परिवार भी इसी बात से खुश था की कम से कम २ वक़्त की रोटी तो मिल रही है पूरे परिवार को नही तो अपने क्षेत्र मे ना तो बारिश है ना ज़मीन ही इतनी उपजाऊ की कुछ काम मिल सकता।



गाँव हो या शहर, किसान हो या उद्योगपति, कॉम्पीटिशन के इस समय मे हर कोई अपने प्रतिद्वंदी को निचा करने का मौका ढूंढता है।  इसी गाँव के दूसरे किसान परिवार ने जिलाधीश कार्यालय में रामप्रसाद की शिकायत लगा दी।  शिकायत पर जिला कलेक्टर ने मोहन के  परिवार को बंधुआ मजदूर घोषित कर गाँव से रिहा कर के उनको वापस अपने गाँव भिजवा दिया।

अभी यहाँ पर सवाल यह है की सरकारी कायदो के मुताबिक कलेक्टर ने सही किया या मानवीय आधार पर गलत किया ?खैर जो भी हो , अभी एक परिवार बेरोज़गार हो गया था और दूसरी तरफ एक बड़े किसान की फसल पर विपरीत असर होने आया था।  सरकारी कायदो के मुताबिक बाहर के व्यक्ति को "जबरदस्ती" अपने खेत पर कम वेतन पर रखना और काम करवाना "बंधुआ मज़दूरी" की श्रेणी में आता है।

किसान परिवार के मुखिया रामप्रसाद ने पुनः उस मोहन के  परिवार को अपने  गांव में बुला लिया और इस बार उसको गांव का स्थाई निवासी बना लिया, याने की  उसके राशन कार्ड, वोटिंग कार्ड इत्यादि उसी गांव के बनवा दिए।  अब मोहन इसी गांव का निवासी हो गया और दिहाड़ी मज़दूरी पर रामप्रसाद के यहाँ काम करने लगा। 

६ महीने बाद गांव के पंचायत के चुनाव के समय इस गांव की सीट अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवार के लिए आरक्षित घोषित की गयी। और इस बार गांव को बगैर चुनाव के ही सरपंच मिल गया।  पुरे गांव में केवल एक ही परिवार था जो अनुसूचित जनजाति का था और जिसके पास गांव के स्थाई निवासी होने के वैध कागज़ भी थे।
जी हाँ दोस्तों, वो था मोहन का परिवार। और हाँ अब मोहन को उस गांव में मज़दूर नहीं मोहन सरपंच के नाम से जाना जाता है।

तो अब बताईये की यहाँ भाग्य ने अपना खेल खेला की नहीं ??



Tuesday 25 November 2014

प्रमोशन

पिछली लघुकथा "आवारा लड़का "को बहुत ही अच्छा प्रतिसाद मिलने के बाद आप लोगो के लिए एक और कहानी लेकर मैं उपस्थित हो रहा हूँ जिसका शीर्षक है "प्रमोशन". आशा है की इसे भी आप पसंद करेंगे।

इस कथा के सभी पात्र, घटनाएँ तथा स्थान पूर्णतः काल्पनिक है जिनका किसी से कोई लेना देना नहीं है।
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संजय ४८ वर्ष के एक नौजवान प्रौढ़ मॅनेजर है जो की एक मल्टिनॅशनल बैंक मे कार्यरत है| घर मे एक खूबसूरत बीवी के अलावा इनकी एक जवान बेटी टिया है जिसने कुछ ही महीनो पहले शहर की ही एक बहुत बड़ी आय.टी. कंपनी मे जूनियर सॉफ्टवेर इंजीनियर के तौर पर जॉईन किया है|

संजय साब के सहकर्मी इन्हे इनकी पीठ पीछे रंगीला संजू भी कहते है, ऐसा क्यों कहते यह जानने के लिए चलते है इनकी एक महफ़िल मे।
संजू भाई साहब अपने ३चेले चपाटो के साथ एक क्लब मे दारू पार्टी मे बैठे है और अपनी जवानी (जो अब भी दारू के साथ चढ़ ही जाती है ) के किस्से बयाँ कर रहे है,  और वो क्या कह रहे है लीजिए आप खूद ही सुन लीजिए।

"अर्रे प्रशांत तू देल्ही घूमा की नही, यहाँ के मस्त वाले एरिया मे गया की नही अब तक" ?,
"नही सर, वैसे किस टाइप के मस्त एरिया की बात कर रहे हो आप ?"
"अबे तू जवान है, कुँवारा है, यही तो उम्र है हर चीज़ एक्सप्लोर करने की, साले हम तुम्हारी उम्र के थे ना तो कहर बरपा के रखे थे "
तभी प्रशांत कहता है "बताईए ना सर कोई किस्सा आपके जमाने का "
" जब में नया नया शिफ्ट हुआ था ना देल्ही मे तो अकेला ही आया था , फॅमिली को होमटाउन मे ही छोड़ के आया था, तब मैं और मेरे कुछ और तुम्हारे जैसे दोस्त , रात मे निकल पड़ते थे, पहले क्लब जाके दारू पीते फिर वो नये वाले थियेटर के बाजू वाली गली मे  जाके वहाँ से बढ़िया वाली २-३टॉप क्लास मॉडेल लेके आते और किसी भी एक दोस्त के फ्लॅट पे जाके सारी रात मौज मस्ती करते"
"समझे कुछ, अरे मैं  शादीशुदा होके इतनी अय्याशी कर सकता हूँ तो तुम क्यों नही ?'

प्रशांत और उसके २ साथी बस सुनते रहते है चुपचाप, प्रशांत मन ही मन सोचता है की साला हमने जिंदगी मे किया ही क्या है, इसको देखो कितना मौज करता है और एक हम है जो घर का किराया, पढ़ाई का लोन, बहन की शादी और पिताजी की दवाई मे ही उलझे हुए है।

तो अब तक आप समझ चुके होंगे की संजय भाई साहब को रंगीला क्यों कहा जाता है।

दर-असल प्रशांत संजय की बैंक मे प्रशिक्षु (प्रोबशनरी) अधिकारी के तौर पर और २० लोगो के सांथ  भरती हुआ है, सब के सब संजय के अधीन ट्रैनिंग ले रहे है और किन्ही १० अशिकारियों  को ही पर्मनेंट किया जाना है और बाकी १० को घर भेज दिया जाना है।


ट्रैनिंग, उसके बाद होने वाली एग्ज़ॅम के रिज़ल्ट और प्रशिक्षण के दौरान रहन सहन के आधार पर तय किया जाना है की कौन रहेगा और कौन घर जाएगा , किंतु आज की दुनिया मे हर चीज़ इतनी आसान नही होती जितनी की वो लगती है। जो फल बाहर से जितना अच्छा दिखता है, और खाने पर जितना स्वादिष्ट होता है उसके बीज उतने ही तकलीफ़ देते है, इसी प्रकार से हर कहानी मे कोई ना कोई ट्विस्ट ज़रूर होता है, यहाँ भी है।

ट्रैनिंग, उसके बाद होने वाली एग्ज़ॅम के रिज़ल्ट और प्रशिक्षण के दौरान रहन सहन गया चूल्‍हे मे, दर-असल संजय साहब की मर्ज़ी से तय होगा की कौन स्थाई कर्मचारी बनेगा और कौन घर जाएगा।

प्रशांत और उसके बहुत से साथी यह बात ट्रैनिंग ख़त्म होते होते जान चुके थे, प्रशांत के लिए इस नौकरी का होना उतना ही ज़रूरी था जितना निधि के लिए, और दोनो को यह नौकरी हर हाल मे बचानी ही थी।

निधि, एक सीधे सादे बॅकग्राउंड की लड़की है साहब, जबलपुर जैसे छोटे से शहर से आई है, विधवा माँ के सिवाए निधि का इस पूरे विश्व मे कोई शुभचिंतक नही है। असल में आज के परिदृश्य में किसी अकेली लड़की का कोई शुभचिंतक होना करीबन नामुमकिन है।  हिन्दी फिल्म "जब वी मेट" के अनुसार अकेली लड़की एक खुली तिजोरी की तरह होती है जिसकी कमज़ोरी का फ़ायदा उठाने को चारो तरफ भूखे भेड़िए तैयार बैठे रहते है, बस वही हाल है । बहरहाल, निधि अपनी हिम्मत, हौसले और काबिलियत के दम पर बैंक मे प्रोबशनरी ओफीसर के पद पर नियुक्त हुई है और अपनी इन्ही ख़ूबियों के दम पर आगे बढ़ना चाहती है।

प्रशांत की कहानी भी बिल्कुल सीधी सादी है, प्रशांत हिन्दी फिल्म ३ ईडियट्स के किरदार राजू की तरह है , उसके घर मे बीमार पिताजी, माताजी के अलावा एक जवान बहन है।  प्रशांत के सर पर भारी भरकम एजुकेशन लोन है, पिताजी का इलाज चल रहा है जिसमे उनकी सारी पेंशन खर्च हो जाती है, घर का खर्च चलाने के लिए बहन ट्यूशन पढ़ाती है। इन सब चीज़ो की चिन्ताओ की लकीरे प्रशांत के माथे पर साफ़ देखी जा सकती है।











खैर कहानी के इन २ शुद्ध आम भारतीय किरदारो की स्थिति से आप समझ ही गये होंगे की इनके लिए यह नौकरी कितनी ज़रूरी है, बाकी के १८ प्रशिक्षु भी कोई पूंजीपति  या राजनैतिक घराने से नही आते, वो भी इन्ही मे से एक है।

आज से ठीक एक हफ्ते मे संजय साब को फाइनल लिस्ट अपने टॉप मैनेजमेंट को देना है, इसकी तैयारी भी हो चुकी है। कल रात रोहित की तरफ से संजय सर को अनलिमिटेड दारू पार्टी मिली है, देल्ही की ही रहने वाली सोनिया भी जॉब बचाने के लिए थोडा "कोम्प्रोमाईज़" करने को राज़ी हो गयी है।  संजय साब ने अपने घर पर इंपॉर्टेंट बीजिनेस ट्रिप का हवाला देकर १ हफ्ते के लिए शहर मे ही होटेल बुक कर लिया है, जिसका पूरा खर्चा मुंबई से आए सौरभ ने उठाया है। इसी होटल के रूम में बाकी के "टेस्ट" होंगे जिनके आधार पर फाइनल लिस्ट बनायी जाएगी।

आज संजय सर ने निधि को पिंग किया " केन यू कम टू माइ कॅबिन ?” निधि ने तुरंत रिप्लाइ किया "यस, कमिंग"

"देखो निधि, तुम्हारा रिज़ल्ट थोडा सा गड़बड़ आया है, परफॉरमेंस  भी तुम्हारा वीक ही रहा है, अब ऐसे मे तुम्हे पर्मनेंट करना थोड़ा टॅफ हो रहा है"

"लेकिन सर, मैंने  ......."

"रहने दो निधि, अब कुछ नही हो सकता, कॉम्पिटीशन बहुत टॅफ है, तुम अच्छे से जानती हो  की बाकी के लोग कितने टॅलेंटेड है. . . . . . . . "

"फिर भी तुम चाहो तो मैं कुछ कर सकता हूँ" धीरे से संजय बाबू अपनी कुर्सी से उठकर निधि के पास आके उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहते है
" मेरे हाथ मे ही है फाइनल लिस्ट, रश्मि का नाम काट के तुम्हारा नाम जोड़ सकता हूँ, बस तुम्हे एक और टेस्ट पास करना होगा"

निधि को उम्मीद की एक किरण नज़र आई तो उसकी आँखें चमक गयी, उसने बिना समय गँवाए पूछा
"मैं  तैयार हूँ सर हर टेस्ट के लिए, बताईए कैसा टेस्ट देना होगा मुझे ?"

"होटेल कॅपिटल-इन मे आज शाम को मेरे साथ पूरी रात टेस्ट देदो, कल ही तुम्हारा नाम पर्मनेंट ओफीसर्स की लिस्ट मे जूड जाएगा, यही नही, अगर तुमने आज रात बहुत अच्छा  परफॉर्म किया तो में तुम्हे मिड-टर्म प्रमोशन के लिए भी रीकमेंड कर दूँगा।  सोच लो, आजकल हर बड़ी कंपनी में ऐसे ही सर्वाइव किया जाता है। "

यह सुनते ही निधि की आँखें जो थोड़ी देर पहले खुशी से चमक रही थी, गुस्से से लाल हो गयी और वो गुस्से मे अपने पैर पटकते हुए बाहर आ गयी, सारा गुस्सा लावा की तरह पिघल के उसकी आँखों से बह रहा था। ऐसा होते उसने अब तक क्राइम पेट्रोल और सावधान इंडिया के एपिसोड्स मे ही देखा था, लेकिन ऐसी घिनौनी बातें अगर असल जिंदगी मे हो तो मन व्याकुल हो उठता है, दील और दीमाग काम करना बंद कर देते है। गुस्से और दुःख  के मिश्रित भाव हमारे ज़हन को भर देते है। यही हाल निधि का था।  निधि ने अब तक अपने ज़मीर का, अपने आदर्शो का सौदा कभी नही किया था, उसके पास उसकी हिम्मत, हौसला और उसके आदर्श यही जमा पूंजी थी जो वो किसी हाल मे गँवाना नही चाहती थी, उसने संजय के आगे झुकने  की बजाए लड़ने का फ़ैसला किया। और टॉप मैनेजमेंट को इसकी शिकायत करने की ठानी।

और जैसा की आप जानते है की आज के परिदृश्य में एक अकेली और जरूरतमंद लड़की को हर कोई अपनी जरूरत का "सामान" समझता है, निधि के सांथ भी यही हुआ उसको चक्कर लगवाये गए, यहाँ से वहां, इस ऑफिस से उस ऑफिस।  बहार हाल वो और प्रशांत मिलकर अब भी कोर्ट में एक केस लड़ रहे है बैंक के खिलाफ।

खैर, संजय को जो करना था उसने वंही किया और उस घटना के एक हफ्ते बाद संजय होटल से अपने घर लौटा तो देखता है की घर पर एक सजावट की गयी है, घर के हॉल मे किसी छोटे सेलेब्रेशन की तैयारियाँ हो रखी है, तभी अंदर से टिया भागती हुई आई और संजय कुछ  कहता उसके पहले ही टिया  ने अपने पापा को गले लगाते हुए ऐसा कुछ कहा जो आज भी संजय के कानो में गूंजता रहता है।

टिया ने कहा

पापा "It's Party Time" मेरे परफॉरमेंस से मेरा मैनेजर इतना खुश हुआ की उसने मुझे अपनी कंपनी में न केवल परमानेंट एम्प्लोयी किया बल्कि मुझे मिड टर्म प्रमोशन के लिए रिकमेंड भी किया है ।



नोट: चित्र गूगल इमेज सर्च के सौजन्य से 
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Thursday 20 November 2014

अजनबी हवा

यह कविता मेने आज से करीब ६- ७ साल पहले तब लिखी थी जब हम लोग कॉलेज से पास आउट होकर अपनी अपनी नौकरियों की तलाश में या जॉइनिंग के लिए निकल रहे थे, जब बीता हुआ कॉलेज का हर लम्हा आँखों के सामने फ़्लैश बैक की तरह घूम रहा था। हम सभी ने कॉलेज में एडमिशन इसी दिन के लिए तो  लिया था की एक दिन अच्छी कंपनी में नौकरी करने जायेंगे, पर जॉब मिलने की ख़ुशी से ज्यादा इस बात का अफ़सोस था की कॉलेज में बने दोस्त बिछड़ जायेंगे, अलग अलग शहरों और कंपनियों में चले जायेंगे।  और वैसे भी किसी महान शख्स ने कहा है की दोस्त कॉलेज लाइफ तक ही मिलते  है उसके बाद जो मिलते है वो तो सिर्फ कलीग्स होते है।

आईये एक "एमेच्योर कवि" की हिंदी -उर्दू  मिश्रित कविता की चंद पंक्तियों का आनंद लीजिये, और अच्छी लगे या बुरी , कमेंट करके बताईये।


कदमो को जुदा जुदा सी लगे यह जमीं। 
इन सांसो को हवाएँ भी लगने लगी अजनबी। 

सर पर है जो आसमाँ वो भी लगता अब अपना नहीं। 
लम्हा लम्हा गुजरता यह वक़्त क्यों थमता नहीं। 

इन अजनबी हवाओं के साथ बाह चले है सभी। 
कुछ ख्वाब पुरे हुए, कईं और  ख्वाब बाकी है अभी। 

राहें बदल जाएंगी, ख्वाब बदल जायेंगे। 
पर इन ख्वाबो को पनाह देंगी ऑंखें वही। 

हमने न सोचा था की ये पल इतनी जल्दी आएंगे। 
हँसते खेलते ये  साल यूँही बीत जायेंगे। 

जिस डोर से जिंदगी को नचाया था हमने कभी। 
उसी डोर पर कठपुतलियों की तरह नाचेंगे हम सभी। 

जंदगी नए मोड़ पर खड़ी है अपनी हकीक़त का आईना लेकर। 
और एक हम है जो इस वक़्त को थाम रहे है हाथो से पकड़ कर। 

यह वक़्त अब नहीं थम पायेगा, पहिये की तरह घूमता जायेगा। 
इन चंद सालो का हर एक लम्हा यादों के सुनहरे पिंजरे में कैद हो जायेगा। 

कॉलेज से भले ही हम हो रहे है विदा। 
पर खुद को कभी न समझना दोस्तों से जुदा। 

हम फिर मिल जायेंगे, वही हंगामा फिर मचाएंगे। 
मिल कर फिर इस जिंदगी को उसी की डोर से नचाएंगे। 

-प्रितेश दुबे 


देश भक्ति

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