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Thursday 4 December 2014

एक बंधुआ मज़दूर की कहानी

 क्या आप भगवान या भाग्य में यकीन रखते है ?

आप कहोगे की आज यह कौनसी बेतुकी बात कर रहे हो , खुद की मेहनत और हुनर के सिवा किसी पे यकीन करना बईमानी है। पढ़े लिखे नवजवान जो ठहरे आप, ऐसा ही सोचना होगा आपका, है ना ? अब भइया हम आपको एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी सुना रहे है,  मतलब पढ़वा रहे है।  इसको पढ़कर आपको यकीन हो जायेगा की गरीब, ईमानदार और मेहनती लोगो को उनका ईश्वर उन्हें न्याय जरूर दिलाता है।

यह घटना मध्यप्रदेश  के एक छोटे से गाँव की है, गाँव मे अधिकांश लोग किसान है और सब के सब बड़े किसान है और उँची जाती से है तो ज़ाहिर सी बात है की खेतो में काम करने के लिए मज़दूर मिलना बहुत मुश्किल होता होगा किसानो के लिए। इसीलिए मज़दूरी के लिए बाहर से लोगो को लाया जाता है और अपने खेत पर रख कर साल भर काम करवाया जाता है।

ऐसे ही एक बड़े किसान परिवार जिसका मुखिया है रामप्रसाद ने मध्यप्रदेश के नीमाड क्षेत्र से एक मजदूर परिवार जिसका मुखिया है मोहनलाल  को अपने यहाँ लगभग बंधुआ मजदूर की हैसियत से रखा हुआ था। नाम मात्र का वेतन और खूब सारा काम करवाया जाता था उनसे. मोहन का परिवार भी इसी बात से खुश था की कम से कम २ वक़्त की रोटी तो मिल रही है पूरे परिवार को नही तो अपने क्षेत्र मे ना तो बारिश है ना ज़मीन ही इतनी उपजाऊ की कुछ काम मिल सकता।



गाँव हो या शहर, किसान हो या उद्योगपति, कॉम्पीटिशन के इस समय मे हर कोई अपने प्रतिद्वंदी को निचा करने का मौका ढूंढता है।  इसी गाँव के दूसरे किसान परिवार ने जिलाधीश कार्यालय में रामप्रसाद की शिकायत लगा दी।  शिकायत पर जिला कलेक्टर ने मोहन के  परिवार को बंधुआ मजदूर घोषित कर गाँव से रिहा कर के उनको वापस अपने गाँव भिजवा दिया।

अभी यहाँ पर सवाल यह है की सरकारी कायदो के मुताबिक कलेक्टर ने सही किया या मानवीय आधार पर गलत किया ?खैर जो भी हो , अभी एक परिवार बेरोज़गार हो गया था और दूसरी तरफ एक बड़े किसान की फसल पर विपरीत असर होने आया था।  सरकारी कायदो के मुताबिक बाहर के व्यक्ति को "जबरदस्ती" अपने खेत पर कम वेतन पर रखना और काम करवाना "बंधुआ मज़दूरी" की श्रेणी में आता है।

किसान परिवार के मुखिया रामप्रसाद ने पुनः उस मोहन के  परिवार को अपने  गांव में बुला लिया और इस बार उसको गांव का स्थाई निवासी बना लिया, याने की  उसके राशन कार्ड, वोटिंग कार्ड इत्यादि उसी गांव के बनवा दिए।  अब मोहन इसी गांव का निवासी हो गया और दिहाड़ी मज़दूरी पर रामप्रसाद के यहाँ काम करने लगा। 

६ महीने बाद गांव के पंचायत के चुनाव के समय इस गांव की सीट अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवार के लिए आरक्षित घोषित की गयी। और इस बार गांव को बगैर चुनाव के ही सरपंच मिल गया।  पुरे गांव में केवल एक ही परिवार था जो अनुसूचित जनजाति का था और जिसके पास गांव के स्थाई निवासी होने के वैध कागज़ भी थे।
जी हाँ दोस्तों, वो था मोहन का परिवार। और हाँ अब मोहन को उस गांव में मज़दूर नहीं मोहन सरपंच के नाम से जाना जाता है।

तो अब बताईये की यहाँ भाग्य ने अपना खेल खेला की नहीं ??



Tuesday 25 November 2014

प्रमोशन

पिछली लघुकथा "आवारा लड़का "को बहुत ही अच्छा प्रतिसाद मिलने के बाद आप लोगो के लिए एक और कहानी लेकर मैं उपस्थित हो रहा हूँ जिसका शीर्षक है "प्रमोशन". आशा है की इसे भी आप पसंद करेंगे।

इस कथा के सभी पात्र, घटनाएँ तथा स्थान पूर्णतः काल्पनिक है जिनका किसी से कोई लेना देना नहीं है।
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संजय ४८ वर्ष के एक नौजवान प्रौढ़ मॅनेजर है जो की एक मल्टिनॅशनल बैंक मे कार्यरत है| घर मे एक खूबसूरत बीवी के अलावा इनकी एक जवान बेटी टिया है जिसने कुछ ही महीनो पहले शहर की ही एक बहुत बड़ी आय.टी. कंपनी मे जूनियर सॉफ्टवेर इंजीनियर के तौर पर जॉईन किया है|

संजय साब के सहकर्मी इन्हे इनकी पीठ पीछे रंगीला संजू भी कहते है, ऐसा क्यों कहते यह जानने के लिए चलते है इनकी एक महफ़िल मे।
संजू भाई साहब अपने ३चेले चपाटो के साथ एक क्लब मे दारू पार्टी मे बैठे है और अपनी जवानी (जो अब भी दारू के साथ चढ़ ही जाती है ) के किस्से बयाँ कर रहे है,  और वो क्या कह रहे है लीजिए आप खूद ही सुन लीजिए।

"अर्रे प्रशांत तू देल्ही घूमा की नही, यहाँ के मस्त वाले एरिया मे गया की नही अब तक" ?,
"नही सर, वैसे किस टाइप के मस्त एरिया की बात कर रहे हो आप ?"
"अबे तू जवान है, कुँवारा है, यही तो उम्र है हर चीज़ एक्सप्लोर करने की, साले हम तुम्हारी उम्र के थे ना तो कहर बरपा के रखे थे "
तभी प्रशांत कहता है "बताईए ना सर कोई किस्सा आपके जमाने का "
" जब में नया नया शिफ्ट हुआ था ना देल्ही मे तो अकेला ही आया था , फॅमिली को होमटाउन मे ही छोड़ के आया था, तब मैं और मेरे कुछ और तुम्हारे जैसे दोस्त , रात मे निकल पड़ते थे, पहले क्लब जाके दारू पीते फिर वो नये वाले थियेटर के बाजू वाली गली मे  जाके वहाँ से बढ़िया वाली २-३टॉप क्लास मॉडेल लेके आते और किसी भी एक दोस्त के फ्लॅट पे जाके सारी रात मौज मस्ती करते"
"समझे कुछ, अरे मैं  शादीशुदा होके इतनी अय्याशी कर सकता हूँ तो तुम क्यों नही ?'

प्रशांत और उसके २ साथी बस सुनते रहते है चुपचाप, प्रशांत मन ही मन सोचता है की साला हमने जिंदगी मे किया ही क्या है, इसको देखो कितना मौज करता है और एक हम है जो घर का किराया, पढ़ाई का लोन, बहन की शादी और पिताजी की दवाई मे ही उलझे हुए है।

तो अब तक आप समझ चुके होंगे की संजय भाई साहब को रंगीला क्यों कहा जाता है।

दर-असल प्रशांत संजय की बैंक मे प्रशिक्षु (प्रोबशनरी) अधिकारी के तौर पर और २० लोगो के सांथ  भरती हुआ है, सब के सब संजय के अधीन ट्रैनिंग ले रहे है और किन्ही १० अशिकारियों  को ही पर्मनेंट किया जाना है और बाकी १० को घर भेज दिया जाना है।


ट्रैनिंग, उसके बाद होने वाली एग्ज़ॅम के रिज़ल्ट और प्रशिक्षण के दौरान रहन सहन के आधार पर तय किया जाना है की कौन रहेगा और कौन घर जाएगा , किंतु आज की दुनिया मे हर चीज़ इतनी आसान नही होती जितनी की वो लगती है। जो फल बाहर से जितना अच्छा दिखता है, और खाने पर जितना स्वादिष्ट होता है उसके बीज उतने ही तकलीफ़ देते है, इसी प्रकार से हर कहानी मे कोई ना कोई ट्विस्ट ज़रूर होता है, यहाँ भी है।

ट्रैनिंग, उसके बाद होने वाली एग्ज़ॅम के रिज़ल्ट और प्रशिक्षण के दौरान रहन सहन गया चूल्‍हे मे, दर-असल संजय साहब की मर्ज़ी से तय होगा की कौन स्थाई कर्मचारी बनेगा और कौन घर जाएगा।

प्रशांत और उसके बहुत से साथी यह बात ट्रैनिंग ख़त्म होते होते जान चुके थे, प्रशांत के लिए इस नौकरी का होना उतना ही ज़रूरी था जितना निधि के लिए, और दोनो को यह नौकरी हर हाल मे बचानी ही थी।

निधि, एक सीधे सादे बॅकग्राउंड की लड़की है साहब, जबलपुर जैसे छोटे से शहर से आई है, विधवा माँ के सिवाए निधि का इस पूरे विश्व मे कोई शुभचिंतक नही है। असल में आज के परिदृश्य में किसी अकेली लड़की का कोई शुभचिंतक होना करीबन नामुमकिन है।  हिन्दी फिल्म "जब वी मेट" के अनुसार अकेली लड़की एक खुली तिजोरी की तरह होती है जिसकी कमज़ोरी का फ़ायदा उठाने को चारो तरफ भूखे भेड़िए तैयार बैठे रहते है, बस वही हाल है । बहरहाल, निधि अपनी हिम्मत, हौसले और काबिलियत के दम पर बैंक मे प्रोबशनरी ओफीसर के पद पर नियुक्त हुई है और अपनी इन्ही ख़ूबियों के दम पर आगे बढ़ना चाहती है।

प्रशांत की कहानी भी बिल्कुल सीधी सादी है, प्रशांत हिन्दी फिल्म ३ ईडियट्स के किरदार राजू की तरह है , उसके घर मे बीमार पिताजी, माताजी के अलावा एक जवान बहन है।  प्रशांत के सर पर भारी भरकम एजुकेशन लोन है, पिताजी का इलाज चल रहा है जिसमे उनकी सारी पेंशन खर्च हो जाती है, घर का खर्च चलाने के लिए बहन ट्यूशन पढ़ाती है। इन सब चीज़ो की चिन्ताओ की लकीरे प्रशांत के माथे पर साफ़ देखी जा सकती है।











खैर कहानी के इन २ शुद्ध आम भारतीय किरदारो की स्थिति से आप समझ ही गये होंगे की इनके लिए यह नौकरी कितनी ज़रूरी है, बाकी के १८ प्रशिक्षु भी कोई पूंजीपति  या राजनैतिक घराने से नही आते, वो भी इन्ही मे से एक है।

आज से ठीक एक हफ्ते मे संजय साब को फाइनल लिस्ट अपने टॉप मैनेजमेंट को देना है, इसकी तैयारी भी हो चुकी है। कल रात रोहित की तरफ से संजय सर को अनलिमिटेड दारू पार्टी मिली है, देल्ही की ही रहने वाली सोनिया भी जॉब बचाने के लिए थोडा "कोम्प्रोमाईज़" करने को राज़ी हो गयी है।  संजय साब ने अपने घर पर इंपॉर्टेंट बीजिनेस ट्रिप का हवाला देकर १ हफ्ते के लिए शहर मे ही होटेल बुक कर लिया है, जिसका पूरा खर्चा मुंबई से आए सौरभ ने उठाया है। इसी होटल के रूम में बाकी के "टेस्ट" होंगे जिनके आधार पर फाइनल लिस्ट बनायी जाएगी।

आज संजय सर ने निधि को पिंग किया " केन यू कम टू माइ कॅबिन ?” निधि ने तुरंत रिप्लाइ किया "यस, कमिंग"

"देखो निधि, तुम्हारा रिज़ल्ट थोडा सा गड़बड़ आया है, परफॉरमेंस  भी तुम्हारा वीक ही रहा है, अब ऐसे मे तुम्हे पर्मनेंट करना थोड़ा टॅफ हो रहा है"

"लेकिन सर, मैंने  ......."

"रहने दो निधि, अब कुछ नही हो सकता, कॉम्पिटीशन बहुत टॅफ है, तुम अच्छे से जानती हो  की बाकी के लोग कितने टॅलेंटेड है. . . . . . . . "

"फिर भी तुम चाहो तो मैं कुछ कर सकता हूँ" धीरे से संजय बाबू अपनी कुर्सी से उठकर निधि के पास आके उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहते है
" मेरे हाथ मे ही है फाइनल लिस्ट, रश्मि का नाम काट के तुम्हारा नाम जोड़ सकता हूँ, बस तुम्हे एक और टेस्ट पास करना होगा"

निधि को उम्मीद की एक किरण नज़र आई तो उसकी आँखें चमक गयी, उसने बिना समय गँवाए पूछा
"मैं  तैयार हूँ सर हर टेस्ट के लिए, बताईए कैसा टेस्ट देना होगा मुझे ?"

"होटेल कॅपिटल-इन मे आज शाम को मेरे साथ पूरी रात टेस्ट देदो, कल ही तुम्हारा नाम पर्मनेंट ओफीसर्स की लिस्ट मे जूड जाएगा, यही नही, अगर तुमने आज रात बहुत अच्छा  परफॉर्म किया तो में तुम्हे मिड-टर्म प्रमोशन के लिए भी रीकमेंड कर दूँगा।  सोच लो, आजकल हर बड़ी कंपनी में ऐसे ही सर्वाइव किया जाता है। "

यह सुनते ही निधि की आँखें जो थोड़ी देर पहले खुशी से चमक रही थी, गुस्से से लाल हो गयी और वो गुस्से मे अपने पैर पटकते हुए बाहर आ गयी, सारा गुस्सा लावा की तरह पिघल के उसकी आँखों से बह रहा था। ऐसा होते उसने अब तक क्राइम पेट्रोल और सावधान इंडिया के एपिसोड्स मे ही देखा था, लेकिन ऐसी घिनौनी बातें अगर असल जिंदगी मे हो तो मन व्याकुल हो उठता है, दील और दीमाग काम करना बंद कर देते है। गुस्से और दुःख  के मिश्रित भाव हमारे ज़हन को भर देते है। यही हाल निधि का था।  निधि ने अब तक अपने ज़मीर का, अपने आदर्शो का सौदा कभी नही किया था, उसके पास उसकी हिम्मत, हौसला और उसके आदर्श यही जमा पूंजी थी जो वो किसी हाल मे गँवाना नही चाहती थी, उसने संजय के आगे झुकने  की बजाए लड़ने का फ़ैसला किया। और टॉप मैनेजमेंट को इसकी शिकायत करने की ठानी।

और जैसा की आप जानते है की आज के परिदृश्य में एक अकेली और जरूरतमंद लड़की को हर कोई अपनी जरूरत का "सामान" समझता है, निधि के सांथ भी यही हुआ उसको चक्कर लगवाये गए, यहाँ से वहां, इस ऑफिस से उस ऑफिस।  बहार हाल वो और प्रशांत मिलकर अब भी कोर्ट में एक केस लड़ रहे है बैंक के खिलाफ।

खैर, संजय को जो करना था उसने वंही किया और उस घटना के एक हफ्ते बाद संजय होटल से अपने घर लौटा तो देखता है की घर पर एक सजावट की गयी है, घर के हॉल मे किसी छोटे सेलेब्रेशन की तैयारियाँ हो रखी है, तभी अंदर से टिया भागती हुई आई और संजय कुछ  कहता उसके पहले ही टिया  ने अपने पापा को गले लगाते हुए ऐसा कुछ कहा जो आज भी संजय के कानो में गूंजता रहता है।

टिया ने कहा

पापा "It's Party Time" मेरे परफॉरमेंस से मेरा मैनेजर इतना खुश हुआ की उसने मुझे अपनी कंपनी में न केवल परमानेंट एम्प्लोयी किया बल्कि मुझे मिड टर्म प्रमोशन के लिए रिकमेंड भी किया है ।



नोट: चित्र गूगल इमेज सर्च के सौजन्य से 
----------------------------------------------------कथा पर आपकी टिप्पणियां आमंत्रित है। 

Sunday 26 October 2014

ईयर एंड क्लोजिंग

ईयर एंड क्लोजिंग 

"Well done guys, this year we have over-achieved our year end target and we all hope to begin this new year with grand opening as we have a change of season advantage."

ऐसा कहते हुए माइक पर थोड़ा खाँसकर अंतर्राष्ट्रीय  रोगाणु  समिति के चेयरमैन श्री झींगा वायरस पानी पिने लगे।  दर-असल आज विक्रम सम्वंत २०७१ की शुरुआत में सारे विश्व से आये रोगाणु , विषाणु , बैक्टीरिया इत्यादि के प्रतिनिधियों के साथ चेयरमैन साहब की अहम बैठक रखी गयी है। 

बैठक अपने पठान साहब के गैराज में रखी है , जहाँ गाडी को छोड़कर आपको तमाम चीजे मिल जाएगी, मसलन एक कोने में पड़ा हुआ पुराना कूलर जिसके टैंक में अभी भी पानी सड़ रहा है, उसी के बाजु में रखा एक फ्लॉवर पॉट जिसमे फ्लॉवर का फ़्लेवर तक नहीं मिलेगा बल्कि दुनियाभर का गीला कचरा उसी में पड़ा मिलेगा और चूँकि यह गैराज खुला ही रहता है तो आसपास से उड़ कर आने वाला तमाम प्रकार का कचरा भी जमा है इसमें। कुल मिलाकर इस मीटिंग के लिए इस गैराज से उपयुक्त जगह कोई हो ही नहीं सकती थी। 

"झींगा साहब कितने अच्छे है न, कितनी बढ़िया जगह मीटिंग रखी है, सफाई का कोई खतरा नहीं है यहाँ " डेंगू वायरस के प्रेजिडेंट ने मलेरिआ प्रेजिडेंट से कहा, बाकी के जीवाणुओ की भी खुसर फुसर चालू ही थी की इतने में चैयरमेन साहब ने एक और अनाउंसमेंट किया , " सभी रोगाणुओं बंधुओ से अनुरोध है की सब अपनी अपनी जगह पर शांत बैठे रहे, अभी थोड़ी देर में हम अपने ईयर एंड क्लोजिंग की फुल रिपोर्ट पेश करेंगे। हमारे पास देश और दुनिया के सारे रिकार्ड्स पहुंच चुके है। "

"लेकिन सबसे पहले में बधाई देना चाहूंगा हमारे एसोसिएशन के नए सदस्य का, जिन्होंने हाल ही में बड़ी धमाकेदार एंट्री मारी है जिससे पूरा विश्व हिल गया है, और आज तक सभी बड़े से बड़े देश खौफ में जी रहे है।  जी हाँ दोस्तों में बात कर रहा हूँ सारी दुनिया में कुप्रसिद्ध और कुख्यात वायरस एबोला की .......... " बात खत्म होते होते पुरे हॉल में तालियों की गड़गड़ाहट गूंज उठी , हर छोटे मोटे वायरस को लगने लगा की वो भी एक दिन ऐसा बड़ा कारनामा कर सकता है , चारो और फिर से एक बार खुसर फुसर शुरू हो जाती है। 

प्रेजिडेंट ऑफ़ HIV एक कोने में खड़ा होक एबोला की तारीफ सुनकर जलभुनकर ख़ाक हो रहा होता है तभी पीछे से V.P ऑफ़ स्वाईन फ्लू आके उसको सांत्वना देता है की "ऐसा तो होता रहता है , परसो तुम फेमस थे कल में और आज यह एबोला", बर्डफ्लू का डायरेक्टर भी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहता है "same to same ". 

"Silence Please" फिर से चैयरमैन साब ने माइक संभाला "और अब मुझे आप सभी को यह बताते हुए बड़ा हर्ष हो रहा है की  भारत देश में हमने इस बार भी तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए  अच्छा प्रदर्शन जारी रखा है।  हमारा टारगेट पूरा करने में कई शहरों के म्युनिसिपालिटी  ने और वहाँ के बेवकूफ इंसानो ने हमारी बड़ी सहायता की है। " किन्तु पिछला एक महीना हमारे लिए थोड़ा संकटमय  गुजरा है , जब से भारत के P.M  मोदी ने स्वच्छ भारत अभियान की शुरुआत की है  तब से लेकर आज तक हमारे करोडो साथी शहीद हुए है और हमारे आंकड़ों पर भी इसका असर पड़ा है।  परन्तु मुझे इस देश के  इंसानी मूर्खों पर पूरा भरोसा है की वो अपने P.M की बातों में इतनी आसानी से नहीं पड़ने वाले  और हमें पाल के रखेंगे अपने आसपास। "

"अभी जैसा की आप सभी जानते है की चेंज ऑफ़ सीजन चल रहा है जो की हमारे बिज़नेस का सबसे अनुकूल समय है , इसी समय में हम ज्यादा से ज्यादा टारगेट पूरा कर सकते है तो आप सभी को नयी टारगेट लिस्ट दे दी जाएगी, आशा है आप उसे जरूर पूरा करेंगे। " 

"अंत में हम सब मिलकर स्वच्छ भारत अभियान में शहीद हुए अपने साथियों को श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे और दावत -ए -कचरा का लुत्फ़ उठाएंगे। "

भाषण ख़त्म होते ही सब के सब जोर से एक नारा लगाते है 
"जब तक कूड़े का ढेर रहेगा । 
रोगाणु समुदाय अमर रहेगा ॥ "


चित्र इंटरनेट के सौजन्य से 


Thursday 11 September 2014

अजन्मे का संकट


आज बड़े दिनों बाद ऐसा हुआ की में सूरज ढलने  से पहले ही ऑफिस का  काम निपटा के घर पहुँच गया। मुझे समय से पहले ही दरवाज़े पर खड़ा पाके मेरी बीवी बड़ी खुश हुयी।  जी साब हम आईटी वालो के जीवन का घडी से कोई लेना देना नहीं होता, कब उठे, कब तैयार हुए, कब ऑफिस पहुँचे और फिर कब घर लौटे, इन सब का समय से कोई वास्ता है ही नहीं ।

पत्नी के मुखमंडल पर मिश्रित सी भावभंगिमा देखकर मुझे आश्चर्य नहीं हुआ, परन्तु वो बड़ी खुश हो गयी।
पत्नियां भी अजीब होती है ( सभी को पता है , कोई नयी बात नहीं ) कभी कभी कोई बड़े से बड़ा काम भी करो या कोई बड़े से बड़ा उपहार भी लाके दो तब भी खुश नहीं होती, और कभी छोटी छोटी सी बातों में ही खुश हो जाती है , जैसे की अभी मुझे समय से पहले अपने सामने पाकर मेरी पत्नी खुश हुयी।

जल्दी से हाथ मुह धोकर मैंने आज बहुत दिनों के बाद शाम की(भी) चाय अपने हाथो से बनाकर अपनी अर्धांगिनी के साथ में बैठकर चुस्कियां मार मार के पी। चूँकि अभी शाम का समय था, बाहर का मौसम भी थोड़ा रोमेंटिक सा हो चला था, सो हमने सोचा क्यों का आज कॉलोनी के बड़े वाले गार्डन में "इवनिंग वॉक " पर चला जाये।  झटपट से तैयार होके हम निकल पड़े।

गार्डन में पहुंच के बड़ा अच्छा लगा, बड़े से गार्डन में  अलग अलग कोने में और बहुत सारे  और हर उम्र के बच्चे खेल रहे थे, दूसरी और कुछ बुजुर्ग अपना प्राणायाम कर रहे थे, एक कोने में कुछ महिलाएं निंदासन कर रही थी।  निंदासन क्या होता है यह तो आपको पता ही होगा।
गार्डन में हम लोग थोड़ा चहल-कदमी करते रहे , में आसपास के यह सारे नज़ारे देखता-सुनता रहा और साथ ही साथ बैकग्राऊँड में मेरी बीवी के  मुख कमलो से निकली वाणी मेरे कानो में बराबर पड़ती रही और में हूँ -हूँ करता रहा।

 कुछ देर चहल कदमी करने के पश्चात् हम लोग मौका देख कर एक खाली बेंच पर विराजमान हुए और मैंने अपनी हूँ- हूँ जारी रखी।  मेरे कानो पर तभी कुछ बुदबुदाने की ध्वनि पड़ी, पास वाली बेंच से ही यह ध्वनि आ रही थी, दर-असल 2 महिलाएं कुछ बातें कर रही थी, एक महिला गर्भवती जान पड़ती थी , और इस बार हमने अपनी पत्नी से आज्ञा लेके  उन दोनों  के संवाद को अपने कानो के ज़रिये दिमाग में रिकॉर्ड कर डाला। और अब वही संवाद सीधा यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ। सहूलियत के लिए मेने दोनों नायिकाओं को नाम दिए है उमा और रमा। जिसमे से रमा वो है जो कुछ दिनों में इस धरती पर नया जीवन लाने वाली है , जी हाँ मतलब गर्भवती है।

उमा : अरे रमा तू वो पाउडर ले रही है की नहीं ? जो मेने तुझे दिया था , वो पाउडर खायेगी तो बच्चा  गोरा चिट्टा और तंदुरुस्त पैदा होगा।
रमा : हाँ हाँ दीदी ले रही हूँ न , दिन में ३ बार लेती हूँ वो तो।

उमा : और तू ना सारे रियल्टी शो देखा कर, जिस से तेरा बालक भी टेलेंटेड पैदा होगा , आजकल सब बच्चे ऐसे ही पैदा होते है, पैदाईशी टैलेंटेड।
रमा: अरे हाँ, आप सही कह रहे हो , वो पास वाली बिल्डिंग में मोना को बेटी हुयी ना तो वो सूर के साथ ही रोती है , और लेटे  लेटे ही डांस भी करती है।  उस मोना ने जरूर सारे रियल्टी शो देखे होंगे, मैं भी सारे शो देखा करुँगी, मुझे भी अपने बच्चे को सुपर टैलेंटेड बनाना है।

उमा: और सुन, तेरे पति जब क्रिकेट देखे ना तो वो तू भी देखा कर, आजकल के बच्चे स्पोर्ट्स में भी आगे होते है, तुझे भी अपने बच्चे को   . . . . . . . . .
रमा: अरे दीदी , यह सब में पूरा ध्यान रखती  हूँ,पर इसके चक्कर में मेरे कई सीरियल्स मिस हो जाते है , पर क्या करे बाहर कॉम्पिटिशन इतना बढ़ गया है की मुझे अपने बच्चे के लिए यह सब करना पड़ता है।

इन महिलाओ की यह चर्चा यहीं समाप्त नहीं हुयी थी, की अचानक से मेरे कानो में एक नन्ही आवाज़ गूंजी, बचाओ बचाओ करके . . ..... सीधे रमा के गर्भ से, जी हाँ , इन दोनों की इतनी भयानक प्लानिंग सुन के बेचारा बच्चा चीख पड़ा , की बस करो, मेरे बाहर आने से पहले ही मुझ पर इतना प्रेशर डाल रहे हो तो  बाहर आने के बाद मेरा क्या हाल करोगे।




इतनी बातें सुन कर , में भी सोच में पड़ गया की बीते कुछ वर्षो में हमारे बालको पर माता पिता द्वारा उत्कृष्ट प्रदर्शन करने के लिए इतना दबाव डाला जा रहा है जिसके लिए कहते सुनते सब नजर आते है , परन्तु करता कोई कुछ नहीं। वैसे माता पिता भी इसी दबाव में रहते होंगे की कही उनका बच्चा बाकी बच्चो से किसी विधा में पिछड़ न जाये। परन्तु  इस होड़ में आज के बालको का बालपन कहीं नजर नहीं आता।

आप भी सोचियेगा , की कही यही "कम्पीटीशन " बच्चो को समय से पहले "बड़ा" तो नहीं कर रहा ?
मेरा इशारा तो आप समझ ही रहे होंगे।

में घड़ा हूँ कच्चा, पकने में समय लगने दो  
बड़ा होने की जल्दी नहीं है मुझे  
बच्चा हूँ अभी मैं, मुझे बच्चा रहने दो। । 



नोट : बच्चा और बालक शब्द पढ़ने सुनने में पु:लिंग लगते है , परन्तु हिंदी भाषा में यह शब्द उभयलिंगी (यूनिसेक्स) है। तो कृपया लेख के मूल से भटकने का प्रयास न करे !
चित्र इंटरनेट के सौजन्य से








Monday 2 June 2014

एक रेल यात्रा और २ स्मरणीय नाम

एक रेल यात्रा और २ स्मरणीय नाम

बात १९९० की गर्मियों की है, में और मेरी मित्र भारतीय रेलवे सेवा के प्रशिक्षु के तौर पर लखनऊ से देल्ही तक का सफर कर रहे थे।  हमारी ही बोगी में २ सांसद भी सवार थे जिनसे हमे कोई परेशानी नहीं थी, परन्तु उनके साथ यात्रा कर रहे उनके १०-१२ साथियो ने बड़ी ही बदतमीज़ी से हमसे बात की। उन लोगो ने हमारी आरक्षित सीट से ही हमें उठा कर खुद सवार हो गए ,  और तो और भद्दी भद्दी टिप्पणियाँ भी करते रहे। उस बोगी में कोई भी यात्री या टिकट चेकर हमारी सहायता करने आगे नहीं आया। हम लोगो ने भय युक्त वातावरण में जैसे तैसे रात गुजारी। 

अगले दिन सुबह हम डेल्ही पहुंचे, तथापि उन गुंडों ने हमें कोई शारीरिक क्षति तो नहीं पहुचाई परन्तु मानसिक रूप से हमें बहुत आघात पंहुचा था।  मेरी मित्र को तो इतना गहरा सदमा पंहुचा था की उन्होंने प्रशिक्षण का अगला चरण टालना ही उचित समझा जो की अहमदाबाद में होना था।

मेने अहमदाबाद जाने का निर्णय किया क्योंकि एक और प्रशिक्षु मेरे साथ यात्रा करने वाली थी। इस बार हम आरक्षण नहीं करवा पाये और वेटिंग का टिकट लेकर ट्रैन में चढ़ गए।  प्रथम श्रेणी के कोच में TTE  से हमने बात की और समझाया की हमारा अहमदाबाद पहुचना कितना जरूरी है, वो हमें एक द्विशायीका (कंपार्टमेंट ) में लेके गया और बैठ कर कुछ देर इन्तेजार करने को कहा। मेने अपने संभावित सह-यात्रियों की और देखा जो की अपने परिधानों से किसी राजनैतिक पार्टी के नेता ही लग रहे थे। मुझे अपनी पिछली यात्रा का संस्मरण हो आया और मेरी भाव-भंगिमा से मेरे भीतर की घबराहट मेरे मुख पर स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी। TTE ने मेरे चहरे के भाव पढ़कर मुझे आश्वस्त किया की ये लोग सभ्य और  नियमित यात्री है। 

उनमे से एक कुछ ४० पार रहा होगा और दूसरे की उम्र कुछ ३५-४० रही होगी। उन लोगो ने ख़ुशी ख़ुशी हमारे लिए बैठने की जगह बनाते हुए खुद को एक कोने में समेट लिया। उन दोनों ने अपना परिचय गुजरात के भाजपा नेताओ के रूप में दिया, उन्होंने अपने नाम भी बताये मगर नाम हम याद नहीं रख पाये, हमने भी उन्हें बताया की हम आसाम से रेलवे सेवा के प्रशिक्षु है। हम लोगो ने कई विषयों पर बातचीत की, विशेषकर इतिहास पर। मेरी मित्र ने इतिहास में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर रखी  थी सो उसने बढ़चढ़ कर चर्चा में हिस्सा लिया, मेने भी बीच बीच में भाग लिया। नेताओ में से जो वरिष्ठ थे उन्होंने ने उत्साह के साथ चर्चा में अपनी हिस्सेदारी दिखाई जबकि दूसरे नेता ने सुनने में अधिक रूचि दिखाई। 

बातो के बीच में मेने श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु का जिक्र किया की कैसे उनकी मौत आज तक एक रहस्य बनी  हुयी है।  कनिष्ठ नेता जो की अब तक बगैर ज्यादा कुछ कहे सिर्फ सुन रहे थे, अचानक बोले : "आप श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बारे में कैसे जानती है ?", तब मेने उन्हें बताया की किस प्रकार से उन्होंने मेरे पिताजी की पढ़ाई के लिए छात्रवृत्ति का इन्तेजाम किया था। 

अचानक से वरिष्ठ नेता ने हमसे कहा , "आप लोग गुजरात में हमारी पार्टी क्यों नहीं ज्वाइन कर लेते ?" हमने जोर का ठहाका लगा के कहा की हमारे बस का ना है और वैसे भी हम गुजरात के नहीं है , तभी छोटे नेता ने कहा : " तो क्या फरक पड़ता है अगर आप आसाम से हो, हमारे यहाँ प्रतिभावान लोगो का स्वागत है ", यह  कहते वक़्त उनके शांत गंभीर चेहरे पर एक चमक सी साफ़ नज़र आ रही थी। हमे प्रतीत हुआ की ये सिर्फ कहने की बात नहीं थी , बल्कि वो लोग गंभीर थे। 

खाना आ चूका था, ४ शाकाहारी थालियां।  हम चारो ने शांतिपूर्वक भोजन किया और जब पेन्ट्री वाला पैसे लेने आया तो छोटे वाले नेताजी ने पूरा भुगतान स्वयं किया।  मेने धीरे से धन्यवाद दिया, उन्होंने सीधे तौर पर दरकिनार करते हुए कहा की इतनी छोटी बात के लिए कैसा धन्यवाद।  उस समय उनके आभामंडल पर जो चमक थी वो देखने लायक थी।

 इतने में TTE  ने आकर हमें सीट की अनुपलब्धता के बारे में जानकारी देकर अपनी असमर्थता ज़ाहिर की और कहा की कुछ और इन्तेजाम नहीं हो सका।  इतना सुनते ही वो दोनों नेतागण तपाक से बोल पड़े की चिंता करने की कोई बात नहीं है हम व्यवस्था कर देंगे। उन्होंने बड़े आराम से निचे फ्लोर पर चादर बिछाई और सो गए और हमने उन लोगो की सीट पर कब्ज़ा जमा लिया। 

पिछली ट्रैन यात्रा और इस यात्रा में कितना बड़ा अंतर था, एक तरफ उन राजनेताओ का झुण्ड जो सभी सह-यात्रियों से बदतमीज़ी कर रहे थे और एक तरफ यह २ नेता जिनके साथ हमे पूर्ण सुरक्षा का अनुभव हो रहा था। अगली सुबह जब ट्रैन अहमदाबाद के करीब पहुंची तो वरिष्ठ नेता ने हमसे हमारे रहने के प्रबंध के बारे में पूछा और अपना पता बताते हुए कहा की कुछ भी समस्या हो तो हम बेझिझक उनके घर जा सकते है, छोटे वाले नेता ने कहा की मेरा तो अहमदाबाद में कोई ठौर ठिकाना नहीं है , परन्तु आप लोग इनका निमंत्रण स्वीकार कर सकते हो और कोई भी परेशानी हो तो बता सकते हो, हम हर संभव सहायता की कोशिश करेंगे। 

 यह सब बातें करते वक़्त उन दोनों के मुख पर एक गंभीरता और आशावान चमक थी। हमने अपने रहने के प्रबंध के बारे में उन्हें आश्वस्त किया और निमंत्रण के लिए उन्हें सहृदय धन्यवाद दिया।  

इससे पहले की ट्रैन  स्टेशन पर रूकती और हम लोग उतर कर अपने अपने गंतव्य की और प्रस्थान करते मेने अपने बैग से अपनी डायरी और पेन निकलते हुए उन दोनों से अपने अपने नाम लिखने का आग्रह किया। क्योंकि में उन दो विशाल ह्रदय वाले नेताओ का नाम नहीं भूलना चाहती थी जिन्होंने नेताओ के प्रति मेरे पूर्वाग्रह को एक अलग ही दिशा प्रदान की थी। 

उन्होंने डायरी लेकर एक -एक करके अपना नाम लिखा , उम्र में बड़े दिखने वाले नेता ने लिखा शंकर सिंह वाघेला और छोटे नेता ने लिखा नरेंद्र मोदी। 

यह पूरा घटनाक्रम मेने १९९५ में एक असमीज़ समाचार पत्र में लिखा था, यह उन दो गुजरती नेताओ के प्रति मेरी आदरांजलि थी जिन्होंने निस्वार्थ भाव से हम दो असमिया बेन  के लिए इतना कुछ किया था।  By Leena Sarma
(The author is General Manager of the Centre for Railway Information System, Indian Railways, New Delhi. leenasarma@rediffmail.com)

नोट: प्रस्तुत लेख अंग्रेजी समाचार पात्र "द  हिन्दू " में १ जून २०१४ को प्रकाशित हुआ था , उसी का हिंदी अनुवाद मेने यहाँ प्रस्तुत किया 

 अंग्रेजी में पढ़ने के लिए निचे दिए लिंक पर जाये :



Tuesday 18 March 2014

शादी के बाद तुम बदल गए -२

शादी के बाद तुम बदल गए, इस जुमले पर एक बहुत ही हल्का सा ऑब्जरवेशन मेने अपने पुराने लेख में लिखा था, जो आपने पसंद किया था।

इसी कड़ी में "शादी के बाद तुम बदल गए" का दूसरा संस्करण आपके समक्ष प्रस्तुत है, यह लेख मूलतः मेरा लिखा गया नहीं है, और मूल लेखक का मुझे अता -पता भी नहीं है, मेने तो बस "रेडी तो ईट मील " में थोडा तड़का लगाने का प्रयास किया है, आशा है आपको पसंद आएगा। 


शादी के बाद हर इंसान बदलता है यह बात तो आपको समझ में आ ही गयी होगी, लोग आपके लिए बदल जायेंगे, आप लोगो के लिए बदल जायेंगे, यही नहीं आप अपनी बीवी या पति के लिए भी बदल जाओगे शादी के बाद, हम तो इंसान है बदलना हमारा स्वाभाव है लेकिन भगवान् का क्या ? 

अब आपको लेके चलता हूँ ऐसी ही एक मजेदार चर्चा में जहा आपको पता पड़ेगा कि शादी के बाद भगवान् भी कितना बदल गए, जी हाँ, यह चर्चा हो रही है स्वर्ग में भगवान् श्री कृष्ण और राधा रानी के बिच.

ऐसे ही घूमते घामते कृष्ण एकदम से राधा जी से टकरा गए एक दिन, देखते ही चोंक से गए, अब चौंकना तो स्वाभाविक है, आपकी शादी के हजारो साल बाद आप किसी दिन अपनी एक्स-प्रेमिका से टकरा जाओ तो आदमी शॉक में आ ही जायेगा, परन्तु यहाँ कृष्ण जी दिल ही दिल में खुश हुए और चौंकने का थोडा नाटक किया, खुश इसलिए हुए क्योंकि रुक्मिणी उनके साथ नहीं थी। कृष्ण कुछ कहते इसके पहले ही राधा जी बोली कैसे हो द्वारकाधीश ?


अब आप ही सोचिये अगर आप सालो बाद अपनी एक्स प्रेमिका से मिलो और वो आपको आपके ऑफिस में जो आपका पद है उससे सम्बोधित करे, मसलन कहे कि "कैसे हो मेनेजर साब ?" कैसा लगेगा आपको, जो कभी आपको आपके उपनाम से पुकारा करती थी, स्वीटहार्ट , जान , जानु इत्यादि और अचानक मेनेजर साब ?

यही हुआ भगवान् कृष्ण के साथ ,जो राधा उन्हें कान्हा कान्हा कह के बुलाती थी उसके मुख से द्वारकाधीश का संबोधन कृष्ण को भीतर तक घायल कर गया फिर भी किसी तरह अपने आप को संभाल लिया और बोले राधा से .........
मै तो तुम्हारे लिए आज भी कान्हा हूँ तुम तो द्वारकाधीश मत कहो! आओ बैठते है ....जलपान ग्रहण करते है कुछ मै अपनी कहता हूँ कुछ तुम अपनी कहो, और वो लोग जाके एक पेड़ कि छाँव में बैठ गए, अगर आप अपने जीवन से जोड़ के देखना चाहे तो जैसे आप किसी मॉल में "उनसे" मिले और कॉफी के लिए बैठ गए। 
सच कहूँ राधा जब जब भी तुम्हारी याद आती थी इन आँखों से आँसुओं की बुँदे निकल आती थी, दिल बड़ा ही बेचैन हो उठता था, लेकिन क्या करे शादी का धर्म रुक्मिणी के साथ निभाना ही था.
राधा ने भी एक जमके फ़िल्मी फटका मारा और  बोली,
मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ ना तुम्हारी याद आई ना कोई आंसू बहा क्यूंकि हम तुम्हे कभी भूले ही कहाँ थे जो तुम याद आते, इन आँखों में सदा तुम रहते थे कहीं आँसुओं के साथ निकल ना जाओ इसलिए रोते भी नहीं थे, हम तो वैसे के वैसे ही है,  ज़रा सा भी नहीं बदले, आप ही बिलकुल बदल गए शादी के बाद.
कृष्णा अपने माथे पे हाथ रख के  बोले , 
अरे राधा तुम भी ?? सारी  दुनिया कहती है में शादी के बाद बदल गया, यंहा तक कि रुक्मिणी भी यही कहती है , तुम तो ऐसा मत कहो। 
बेचारे कृष्ण भी एकदम फ्रस्ट्रेट होके  बोले थे , लेकिन राधा तो राधा थी, एक तो लड़की और ऊपर से एक्स प्रेमिका, 
राधा बोली, नहीं द्वारकाधीश, 
तुम बहुत बदल गए हो, मानो या न मानो, तुम मेरे कान्हा नहीं रहे.आप  कितना बदल गए हो इसका इक आइना दिखाऊं आपको ? कुछ कडवे सच ,प्रश्न सुन पाओ तो सुनाऊ?
कृष्णा जी कुछ और कहते इसके पहले राधा जी ने टोका और आगे कहना शुरू किया, वैसे भी एक बार नारी कहना शुरू कर दे तो नर को चुप चाप खड़े रह के सुनना ही पड़ता है , बिलकुल डॉक्टर कि कड़वी दवाई कि तरह  हर बात निगलना पड़ती है
राधा ने कहना जरी रखा ,  
कभी सोचा इस तरक्की में तुम कितने पिछड़ गए यमुना के मीठे पानी से जिंदगी शुरू की और समुन्द्र के खारे पानी तक पहुच गए ?एक ऊँगली पर चलने वाले सुदर्शन चक्रपर भरोसा कर लिया और दसों उँगलियों पर चलने वाळी बांसुरी को भूल गए ? कान्हा जब तुम प्रेम से जुड़े थे तो ....जो ऊँगली गोवर्धन पर्वत उठाकर लोगों को विनाश से बचाती थी प्रेम से अलग होने पर वही ऊँगली क्या क्या रंग दिखाने लगी सुदर्शन चक्र उठाकर विनाश के काम आने लगी.

तुम कहते हो कि तुम नहीं बदले लेकिन कान्हा और द्वारकाधीश में क्या फर्क होता है बताऊँ, कान्हा होते तो तुम सुदामा के घर जाते सुदामा तुम्हारे घर नहीं आता, तुम राजा हो गए हो, बड़े आदमी हो गए हो, तब एक ग्वाले हुआ करते थे। 
अब तक राधा फुल मूड में आ चुकी थी, कान्हा भी समझ गए थे कि अब पार पाना अपने बस का ना है

राधा ने बिना साँस लिए बोलना ज़ारी रखा 
युद्ध में और प्रेम में यही तो फर्क होता है युद्ध में आप मिटाकर जीतते हैं और प्रेम में आप मिटकर जीतते हैं कान्हा,  प्रेम में डूबा हुआ आदमी दुखी तो रह सकता है पर किसी को दुःख नहीं देता

राधा वाकई में कान्हा कि सच्ची प्रेमिका थी, कान्हा कि हर गतिविधि पर नजर रखे हुए थी, कान्हा के हर एक एक्शन को राधा ने करीब से देखा था, हो सकता जैसे आप भी अपने एक्स पार्टनर कि फेसबुक प्रोफाइल को रेगुलरली चेक करते हो, मन ही मन उसके हर मूव को रिकॉर्ड करते हो, हो सकता है न ? मतलब में ये नहीं कह रहा कि ऐसा होता ही है, हो सकता है, सम्भावना है। 
तो राधा को भी कान्हा कि पूरी जानकारी थी, उसने आज सोच लिया था कि साबित करना ही है कि कान्हा शादी के बाद कितना बदल गया है , राधा आगे बोली 
आप तो कई कलाओं के स्वामी हो स्वप्न दूर द्रष्टा हो गीता जैसे ग्रन्थ के दाता हो पर आपने क्या निर्णय किया अपनी पूरी सेना कौरवों को सौंप दी? और अपने आपको पांडवों के साथ कर लिया सेना तो आपकी प्रजा थी राजा तो पालक होता है उसका रक्षक होता है, आप जैसा महा ज्ञानी उस रथ को चला रहा था जिस पर बैठा अर्जुन आपकी प्रजा को ही मार रहा था अपनी प्रजा को मरते देख आपमें करूणा नहीं जगी ?
 क्यूंकि आप प्रेम से शून्य हो चुके थे, आप बदल चुके थे मान लो कान्हा कि इंसान हो या भगवान्, शादी के बाद हर कोई बदल जाता है। 
कान्हा कि बारी आयी, अबकी कान्हा बोले, 
मान गया राधा कि में बहुत बदल गया हूँ, लेकिंन क्या करे काम काज का बोझ, और शादी के बाद घर गृहस्थी कि जिम्मेदारी में कोई भी अपने आप को बदल ही लेता है, बदलना ही पड़ता है, जिंदगी में आगे बढ़ना ही पड़ता है, अब इसमें मेरा क्या कसूर ?
राधा ठहाके लगा के हंसी और बोली, वो तो सब ठीक है, पर एक बात बताती हूँ, प्रेम से कभी दूर मत रहो, हो सके तो उसी से शादी करो  जिससे प्रेम करते हो, वोही काम करो जिसमे आनंद आता हो, बस जिम्मेदारी निभाने के लिए किया गया काम और प्रेम ये दुनिया याद नहीं रखती।
कान्हा ने माथे पे बल देकर कहा, में कुछ समझा नहीं राधा, 
तब राधा ने अपना लास्ट बट नोट दी लीस्ट वाला मास्टर डायलॉग मारा, और जो बात राधा ने कही उसके बाद आप भी विचार करने को मजबूर हो जायेंगे ……………राधा ने अपनी अंतिम बात कुछ यू रखी
मतलब यह है कान्हा कि आज भी धरती पर जाकर देखो अपनी द्वारकाधीश वाळी छवि को ढूंढते रह जाओगे,  हर मंदिर में मेरे साथ ही खड़े नजर आओगे आज भी मै मानती हूँ लोग गीता के ज्ञान की बात करते हैं उनके महत्व की बात करते है मगर धरती के लोग युद्ध वाले द्वारकाधीश पर नहीं प्रेम वाले कान्हा पर भरोसा करते हैं गीता में मेरा दूर दूर तक नाम भी नहीं है पर आज भी लोग उसके समापन पर " राधे राधे" करते है"

विचार कीजियेगा कि शादी के बाद बदल जाने के तर्क वितर्क में भगवान् भी जीत न पाये तो क्या आप जीत पाएंगे ??

Monday 30 December 2013

Kejriwal and Karna


Now-a-days everyone is talking about Mahabharat, be it the animation movie where big stars have landed their voice or the Television Series or the current political scenario in India

So I thought I should write something about it. You might have already flooded with various comparisons of today’s political set-up with mythological stories, but I can not stop myself.You may not be a fan of mythological writings or the stories, but you must have heard the name Karna or Karan.

Karna, a Mythological character from Mahabharata, is a well praised character, a great warrior, large hearted, hard worker, generous, and above all a fighter and self made leader. Any positive adjective I use here will be less for him and all this written in the classic book.  Having all said about Karna, he is not considered by people as a deity or someone who can be kept in the good books.

He was a son of the god Sun by kunti, but brought up by a charioteer and was always called a saarthi – putra or Soot-putra. According to the “Varna-vyavastha” he could not be a disciple of Gurus like Dronacharya and Parashurama, he could not get learning and teaching of astras(Weapons) and shaastra(Rules of life).


 He hated the system and rebelled against it. Karna became pupil of Guru Parashurama on a false note that he is a Brahmin. And as people say that a lie has no feet, so karna couldn’t go long with that lie and became victim of curse from his contemporary Guru Parshuram.Karna was good at heart, his intentions were good and he was skilled but just because he did not belong to a particular Varna(Caste), he could not hone his skills with the dignity as Khatriyas and Brahmins could afford.  He nourished a kind of hatred in his heart for this system and wanted to change it, and wanted to get the power, wanted to become a king.To douse his burning desires, to get the Kingdome, to fulfill his long term aspirations he joined hands with Kouravas (the 100 bad brothers or better the main villains of Mahabharat).

Finally in the climax his life was ended like a villain and not like a hero. He was killed by Arjuna.
He had to suffer a lot because of his 2 big mistakes, first, to betray a Guru like Parashuram and second, joining hands with most lawless, corrupt and hypocrite people like Kauravas.


The title of this article is Kejriwal and Karna, and I have written all about Karna, you might be thinking that when I would introduce our today’s hero Kejriwal? So my dear readers, that’s all, now I don’t need to write anything about Kejriwal. At the end of this article I will rename Kejriwal as today’s Karna who joined hands with today’s Kauravas.Rest you think, and relate the populist with the Karna's Story.


Note: All AAP and AK lovers, please excuse!

Image courtesy: Google.

Monday 23 December 2013

ट्रैफिक हवलदार, केले वाला और राजू


समय : शाम ४ बज कर १० मिनट
स्थान : पुणे शहर का एक प्रमुख चौराहा
पात्र: ट्रैफिक हवलदार, केले वाला और राजू


राजू तेज गति से अपनी धून में अपनी दुपहिया गाडी पे कानो में हैडफ़ोन लगाकर चला आ रहा था, सामने चौराहे पर लाल बत्ती होते ही तुरंत ब्रेक लगाकर जैसे ही साइड में खड़ा हुआ, एक सिटी कि आवाज़ और डंडे कि फटकार सुन कर उसने कान से हैडफ़ोन निकाले और देखा कि सामने खड़े ट्रैफिक हवलदार ने उसे सड़क के किनारे लगे पेड़ के निचे बुलाया है । राजू चुपचाप अपनी गाडी धकेलता हुआ जा पंहुचा उस हवलदार के पास।

लाइसेंस, इन्शुरन्स, गाडी के कागज और PUC  हर चीज मुकम्मल करके हवलदार बोला, रेड लाइट में ज़ेबरा क्रासिंग पे खड़ा था भाउ तू, चल चालान भर, ८०० रूपया लगेगा। राजू एक  सीधा साधा, और तुलनात्मक रूप से ईमानदार आदमी है, इसीलिए अपने सारे डाक्यूमेंट्स रेडी रखता है, आज तक जब भी पकड़ा गया है बिना पैसे दिए ही छोड़ा भी गया है, बिना कोई धौंस -डपट के।
राजू के कोई रिश्तेदार पुलिस में, सरकारी नौकरी में या राजनीती में भी नहीं है, ताकि वो कह सके कि "जानते भी हो किस से बात कर रहे हो तुम ?" या फिर अपना फ़ोन निकाल के किसी को फ़ोन लगा के कह ही सके कि तेरी बात करवाऊ S.P  साब से ? वो तो एक आम आदमी (AAP  वाला नहीं ) है।

फिर राजू ने पूछा कि कहा है ज़ेबरा क्रासिंग जिस पर में खड़ा था ? यहाँ तो कोई क्रासिंग नहीं दिखाई देता, तभी हवलदार ने अपनी आवाज़ में टाटा टी कि कडकनेस घोल के कहा "अब तू हमें ट्रैफिक रूल सिखाएगा ?, भाउ प्रेम से चालान कटवा ले नहीं तो खड़ा रह, मेरे को और भी काम है" (मतलब मेरे को और भी बकरे पकड़ने है ) .

कुछ जगहो पर हवलदारों के बड़े साब भी मौजूद होते है, अब अगर बड़े साब हो तो "कद्दू कटेगा, सब में बंटेगा" वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है, इसीलिए हवलदारों ने चौराहो पे ठेलागाड़ी (रेड़ी ) लगा के बैठे फल वाले, चाट वाले अपने भाइयों को सेट करके रखा होता है। जैसे ही कोई "बकरा" बात चित शुरू करता है लेन -देन  कि तो हवलदार साब रकम फिक्स करके "बकरे" को कह देते है कि जाके केले वाले या चाट वाले को देदो और निकल जाओ।

हमारे राजू के केस में भी ऐसा ही कुछ था, राजू ने सोचा कि अब बात बिगड़ने से अछा है कुछ ले-देके मामला निपटाया जाये, उसने पहल करी, "सरजी ८०० तो बहुत ज्यादा है , इतने तो है भी नहीं मेरे पास, और अगर रसीद ना लेनी हो तो कितने लगेंगे ?"
इसी बात कि तो बाट  जोह रहे थे हवलदार बाबू, उन्होंने बिना कोई समय गंवाए राउंड फिगर में ५०० का प्रस्ताव रखा, इधर राजू भाई साहब ने अपना चमड़े का दबा कुचला बिल्कुल भारत देश के आम आदमी कि दशा को प्रदर्शित करता बटुआ अपनी जीन्स कि दाई पॉकेट से निकाला, खोला तो ढेर सारे छोटे बड़े कागजो, विजिटिंग कार्डो, ATM  स्लिपों के बीचोबीच १०० - १०० के २ और १०-१० के ३ नोट मिले, उसने हवलदार साब को अपना पर्स दिखाके विनती कि " सर अभी २०० में काम चला लो, अगली बार पकड़ो तो पुरे ले लेना" , हवलदार साब ने भी दरियादिली का परिचय देते हुए कहा, ठीक है जा  रोड क्रॉस करके सामने केले वाले को देते हुए निकल जा, में यहाँ से देख रहा हूँ उसको इशारा करता हूँ।

राजू पलक झपकते ही रोड के उस पार केले वाले कि दूकान पर खड़ा था, उस पार से हवलदार ने सिटी बजा के केले वाले को अपनी हथेली कि २ उंगलियां इस अंदाज में दिखाई जैसे कोई नेता अपनी विजय रैली में विक्ट्री सिम्बॉल दिखाता है। केले वाले ने भी अपनी मुंडी OKAY  SIR के अंदाज़ में हिला दी।

स्थान: रोड के दूसरी तरफ केले वाले कि दूकान
समय: शाम के ४ बजकर २० मिनट
पात्र : राजू, केले वाला और ट्रैफिक हवलदार

राजू: भैया वो साब ने २ दर्जन केले मंगवाए है। उनकी तरफ देखो वो शायद इशारा करेंगे।

केले वाला सिटी कि आवाज़ सुनकर  हवलदार कि तरफ देखता है, हवलदार २ का इशारा करता है। केलेवाला OKAY SIR कि मुद्रा में मुंडी हिला देता है।

राजू जाते जाते २ याने कि विक्ट्री का इशारा हवलदार कि तरफ करता हुआ अपनी तेज़ गति में, हेडफोन्स कानो में लगाये उस चौराहे से ओझल हो जाता है।

तात्पर्य, बईमानी का जवाब थोड़ी से बईमानी करके दिया जा सकता है और यह थोड़ी से बईमानी मेरे हिसाब से वाजिब है , आप क्या कहते है इस विषय पर ? आपके पास भी कोई ऐसी कि घटना हो तो साझा कीजिये। 



Thursday 5 December 2013

Toilet - The ultimate place

If I ask you that which is the place where you get your share of peace for each day of your mechanical life?
Okay, if I ask that which is the place where you would visit everyday without fail (subject to ill health)?
 Now I think many of you have guessed it right that I am talking about the most important place of our life where we get an extra piece of relief, I am talking about restrooms, washrooms or better say Toilets.
Toilets play a critical role in our daily life, and I am not the first person who is writing on this subject, many more scholars and big shots have also written about toilet.
For reference I share a few with you,

It is better to have a relationship with someone who cheats on you than with someone who does not flush the toilet.
--Uma Thurman

Toilets first, temples later”
---Narendra Modi

It is the best place in your house which you can use as “Private Zone” and you can be a bit more relaxed while sitting here than any other area of your house.
Indians are Intelligent but they are also known for their misconceptions and superstitions, if we talk about going toilet, many people have their own morning habits for this task, I know many people just go there, sit, wash, flush and return. But for a large chunk of people going toilet is a big task.

Let’s have a flashback…..
I spent my childhood in a small village so I start with my village, at that time people used to visit farms, forests, and ponds for the daily routine. Having a house was more important then having a toilet in house. So, many times for the elder people of village it was a point of get to gather and they used to discuss important issues during their toilet sessions, issues like, which fertilizer should be used, what is the right time for seeding the farms, whose son is ready to be married in market, whose buffalo is giving how much milk etc.
Children also used to go and sit in abandoned farms and open lands. They used to play with pebbles and bushes around while their sessions, many times they used to discuss about the “Kancha tournaments” and they get their school bunk planned in that session. 
I have seen women too; they generally used to form a group of 5-7 and then go. Their usual topics of discussion were the same as today when they meet.

 Let’s come back to today’s era….

Now when people have built toilets in their houses, they usually don’t need to go outside and they don’t get company to discuss important matters while their toilet sessions, it become difficult to have a “Successful Toilet Session”. Here I will not elaborate the “Successful session” it’s your task to understand.
People have developed strange habits to have a “Successful Session”. Here I share some strange and some known habits which people follow to have their successful morning call.
I start with my grandfather, he used to smoke beedi in normal day but every morning he needed a filter cigarette. He explained to me that without that filter cigarette he couldn't get his pressure. He carried this habit with him for long time.
Same as my grandfather my father developed habit to chewing tobacco; he keeps the small boxes of tobacco and chuna under his pillow, to make it sure that after waking up first thing should be tobacco which goes into his mouth.

Chewing tobacco, smoking cigarettes are the known habits which many people follow today, but Mahesh uncle, one of our neighbors was having a strange habit, on the corner of the street where we used to live, there was a sweet shop, and every morning they used to sale hot jalebi, samosa kachori and the Famous Indorie Poha. Now if Mahesh uncle doesn't get the Kachori with Imli chutney from that shop, he wouldn't get his “Successful toilet Session” and it is believed that because of this habit he used to deny travel much and go outstations because he needed that Kachori everyday.

 


Apart from these habits of eating Kachori, smoking cigarette /bidi, chewing tobacco/gutakha/paan masala or drinking a hot cup of tea there is a big group of people who go and read news paper inside the toilet, I am sure many of you would admit this fact to bring newspaper in toilet, now we have different variants of this habit as well, like one of our relatives has designed his toilet in a way that a folding table is attached in front of his toilet seat which he would use to read news paper. One of my friends doesn't get his share of peace in toilet if he doesn't get a fresh set of news paper or better I say a virgin newspaper. Our college topper and gold medalists had a habit to go with formula sheets and other tutorials with him while going inside.



I see that things are not changed today as well, now the young generation has I-pads, smart phones, laptops and PSPs in their hands while they go inside.
Now it’s your turn to admit… what you bring along with you when you go “Inside”??
Share interesting Toilet habits you have seen in people ….

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देश भक्ति

  देश भक्ति , यह वो हार्मोन है जो हम भारतियों की रगो में आम तौर पर स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस  या भारत पाकिस्तान के मैच वाले दिन ख...