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Sunday 26 July 2015

बंधन



डिस्क्लेमर/घोषणा/सावधान:
यह पोस्ट थोड़ी गंभीर हो सकती है, हो सकता है की इसमें हास्य का तड़का फीका रहे, यह भी हो सकता है की अंत तक थोड़ी भारी भारी सी लगने लगे; किन्तु विश्वास कीजिये इसे पूरा पढ़ने के बाद आप निस्संदेह प्रसन्नचित्त होंगे।

जैसा की शीर्षक से समझ आता है की यह लेख किसी प्रकार के बंधन या सम्बन्ध पर आधारित है। जी हाँ सबसे महत्त्वपूर्ण सम्बन्ध या नाता जिसे मानवता का नाता कहते है उसी पर आधारित है यह लेख। इस संसार में हर एक मनुष्य दूसरे मनुष्य से किसी न किसी तरह जुड़ा हुआ है। भले ही आपस में कोई स्पष्ट सम्बन्ध दिखाई न दे किन्तु हमारा जीवन हर पल किसी न किसी के जीवन को प्रभावित करता है। अगर सिंपल भाषा में बात करू तो हम सब एक दूसरे से किसी न किसी तरह कनेक्टेड है। सुनने में थोड़ा अजीब लगे किन्तु हम इस तरह से जुड़े हुए है की किसी एक इंसान का दर्द हमे तकलीफ दे सकता है और किसी दूसरे कोने में दूसरे इंसान की एक मुस्कान हम सभी को ख़ुशी दे सकती है। और इस बात से आप इंकार नहीं कर सकते की किसी अनजाने इंसान की तकलीफ देखकर आपको जरा भी रंज नहीं होता या किसी मासूम बच्चे की हंसी देखकर आपको जरा भी ख़ुशी का अहसास नहीं होता। निस्संदेह होता ही होगा।

कहने का तात्पर्य यह है की जिस प्रकार किसी और का दुःख हमें दुखी कर सकता है, किसी और की ख़ुशी हमें खुश कर सकती है उसी प्रकार हमारा दुःख भी किसी और को दुखी करने के लिए पर्याप्त है। हम बचपन से ही सुनते-पढ़ते आ रहे है की जैसा बोओगे वैसा काटोगे, जैसी करनी वैसी भरणी या अंग्रेजी में Whatever goes around, comes around. यह चीज हमारे वचन और कर्म पर लागू होती है। हमारे द्वारा बोला गया कटु वचन जो भले ही हमने किसी अपने को बोला हो वो किसी और के जीवन को प्रभावित कर सकता है। इस चीज को समझने के लिए एक उदाहरण लेते है रामायण का, मुझे नहीं पता की आप में से कितनो को यह कहानी पता होगी। किन्तु इस बात को समझने के लिए बही इससे सटीक उदाहरण नहीं मिला।
आप जानते है अपनी पत्नी सीता को राम जी ने रावण के चंगुल से छुड़ाने के उपरांत पुनः परित्याग करते हुए जंगल में छोड़ दिया था। क्यों किया था ऐसा, जानते है आप ? दर-असल राम के राज्य में एक दिन एक शराबी धोबी नशे में धुत्त होकर अपनी पत्नी को सरे-राह पिट रहा था और भला बुरा कह रहा था। नशे में उसने कुछ ऐसे वचन कहे जिन्होंने इतिहास रच दिया। गुस्से और नशे के वश में उस धोबी ने अपनी पत्नी को गालियां देते हुए कहा :
"कुलटा है तू, निकल जा मेरे घर से, मैं राम के जैसा महान नहीं हूँ जो किसी और के पास रहकर आयी अपनी पत्नी को अपना ले। मैं तुझे त्यागता हूँ, मैं अधर्म नहीं कर सकता। एक दूषित नारी को अपने घर में जगह नहीं दे सकता। "

यह वचन इतने प्रभावी सिद्ध हुए की भगवान राम के दरबार तक जब यह बात पहुंची तो उनके पंडित पुरोहितो ने तुरंत उन्हें राजधर्म निभाने की सलाह देते हुए सीता का त्याग करने का आदेश दे दिया। और राम ने राजधर्म को परिवार से बड़ा मानते हुए सीता का त्याग कर दिया।

चित्र गूगल इमेज सर्च से
 
देखा आपने, एक शराबी ने नशे और गुस्से में आकर जो शब्द अपनी पत्नी को कहे वो शब्द सीता के जीवन पर भारी पड़े। कहने को तो एक मामूली सा  धोबी ही था वो जिसका राज-परिवार से कोई रिश्ता नहीं था परन्तु फिर भी वो सीता के जीवन में होने वाले उथल पुथल का कारण बना। इसी प्रकार से हमारे भी वचन अनजाने में पता नहीं किसके जीवन को नुकसान पंहुचा सकते है।इसलिए जो भी बोले सोच समझ कर बोले, कई बार कटु वचन हमारे मन में कुलबुलाते रहते है। ऐसे समय में चुप रहना ही न्यायसंगत होता है।

यह तो  हुयी हमारे द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाले शब्दों की बात, इसी प्रकार से हमारे किये हुए कर्मो का असर सिर्फ हमारे जीवन पर ही नहीं होता अपितु समस्त संसार में किसी भी प्राणी के जीवन पर हो सकता है। इसको समझने के लिए हम समकालीन उदहारण लेते है।
मान लीजिये की आज आपने अपने ऑफिस में इतना अच्छा काम किया की शाम को देर तक बैठने की जरुरत नहीं पड़ी। आपका बॉस भी बड़ी ख़ुशी के साथ आज जल्दी घर निकल गया। जल्दी पंहुचा तो बॉस की बीवी बड़ी खुश हुयी और वो दोनों बड़े दिनों बाद बाहर डिनर पर जा सके। पत्नी इतनी खुश थी की बॉस को इस वीकेंड अपने दोस्तों के साथ पार्टी करने की इजाज़त देदी। वेटर को भी आज ज्यादा टिप मिली। आते आते पड़ौसी के बच्चे के लिए आइसक्रीम खरीद के ले आये तो वो बच्चा भी खुश हो गया। बच्चे को खुश देखकर उसके माँ बाप भी बड़े आनंदित हुए। (आपके जल्दी घर पँहुचने पर जो खुशियाँ आपको मिली होगी उसका हिसाब तो यहाँ हम रख ही नहीं रहे है। )


तो देखा आपने, आपके द्वारा ऑफिस में किया हुआ अच्छा काम कितने लोगो को अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित कर गया। इसी प्रकार से अगर हम वही काम बिगाड़ देते, जिसको सुधारने के लिए देर रात तक आपको और बॉस को ऑफिस में ही बैठना पड़ता तो यह चैन ऑफ़ इवेंट्स बिलकुल उलटे होते।

शायद विज्ञान की भाषा में इसे रिप्पल इफ़ेक्ट की उपाधि दी गयी है किन्तु यह बचपन से सुनते आ रहे उस जुमले का ही विज्ञानी नाम है जिसे हम कहते है Whatever goes around, comes around. या जैसा करोगे वैसा भरोगे।

कल्पना कीजिये की अगर पूरी दुनिया में लोग अपने वचनो और कर्मो से किसी को दुःखी न करे,तो हो सकता है की एक दिन समस्त संसार से दुःखो का नाश हो जाये। हमारे अच्छे वचन और अच्छे कर्म हमे ही नहीं अपितु पुरे संसार को सुख देने की क्षमता रखते है।

अगर हम इस समाज के भले के लिए ज्यादा कुछ नहीं कर सकते तो कम से कम इतना तो कर ही सकते है की निश्चय करले की कटु शब्दों और घृणा से भरे वचनो का प्रयोग करने से बचेंगे और प्रयत्न करेंगे की कभी हमारे शब्द या कर्मो से किसी को कष्ट न पहुंचे।

ध्यान रखने वाली बात यह भी है की यह कर्म और वचन ऑनलाइन क्रीड़ाओं पर ज्यादा लागू होता है , क्योंकि आजकल प्रत्यक्ष जीवन में तो इतना हम किसी से मिलते जुलते नहीं जितनी बाते सोशल मिडिया पर करते है।
कोशिश करे की किसी घृणा से भरी पोस्ट को आगे बढ़ने से रोके और खुद तो ऐसे पोस्ट कदापि न डाले।

अगर अच्छी लगे तो इस पोस्ट को आप जरूर आगे बढ़ा सकते है शेयर का बटन दबा के।


नोट : ऊपर कही गयी बातों को अंग्रेजी में विज्ञान के लहजे में समझने के लिए Google सर्च करे "Ripple Effect" और "Butterfly effect".









Tuesday 14 July 2015

ऑनलाइन शॉपिंग के नुकसान


भारत में ऑनलाइन शॉपिंग का ट्रेंड बड़े जोरो शोरो से चल रहा है। सर की टोपी से लेकर पैरो की जुराबों तक, छोटे से फ़ोन से लेकर बड़े से मकान तक सब कुछ ऑनलाइन बिक रहा है। हमारी युवा पीढ़ी तो सबकुछ ऑनलाइन ही कर रही है।

वैसे तो मैं भी इसी पीढ़ी का हिस्सा हूँ परन्तु मेरी पढ़ाई लिखाई इस ऑनलाइन क्रांति से थोड़ा पहले ही खत्म हो गयी थी, इसलिए मैं अपनी स्कूल/कॉलेज के जीवन में इस क्रांति से अछूता रह गया।अभी तो जितना हो सके मैं भी  शॉपिंग ऑनलाइन ही करता हूँ फिर चाहे कच्छा खरीदना हो या जूते या फ़ोन।

अभी अभी हमारे प्रधानमंत्री जी ने भी डिजिटल इंडिया के नाम से आंदोलन छेड़ा है तो आने वाले समय में ऑनलाइन काम-काज बढ़ेगा। लोग तो यहाँ तक कहते सुनते नजर आते है की अब बाज़ार बंद होने को है, दुकानो पर ताला लगने वाला है क्योंकि सब कुछ तो मोबाइल से ही खरीदा जा सकता है।
किन्तु मेरा कहना है की हम भारतीय लोग कभी इन बाज़ारो को बंद नहीं होने देंगे, चाहे कितना ही ऑनलाइन क्रांति ले आओ हमें मार्केट में जाके मोल-भाव करके सामान खरीदने से कोई नहीं रोक सकता।

मैं अपने दिल की बात बताऊ तो ऑनलाइन शॉपिंग में वो मजा नहीं है जो मजा किसी सामान को बाज़ार से खरीद के लाने में है।

किसी उत्सव की शॉपिंग हो या शॉपिंग का उत्सव, भारत की एक प्रजाति जिसे लोग मिडल क्लास कहते है सबसे आगे रहती है। हाई क्लास वाले तो भारत में शॉपिंग करते ही कहाँ है। और जब हम शॉपिंग को उत्सव की तरह मनाते है तो बाकायदा इसके लिए दिन महीना वार चौघड़िया निश्चित करके घर से निकलते है। अब अगर कोई कहे की इस उत्सव को घर बैठे मनाओ वो भी कंप्यूटर/मोबाइल के सामने बैठे बैठे तो इसमें क्या मजा है भाई ?

आईये मुद्दे की बात करते है और आपको समझाते है की बाज़ार में जाकर शॉपिंग करने के कितने फायदे है।

१. फैमिली आउटिंग:
हमारे यहाँ कईं लोगो के लिए  शॉपिंग एक फैमिली आउटिंग की तरह होती है। यहाँ शॉपिंग से मेरा मतलब मासिक राशन की शॉपिंग से भी हो सकता है जो की बिग-बाजार, रिलायंस मार्ट या डी-मार्ट से जाके की जाती है। अपने २ साल के बच्चे को शॉपिंग कार्ट में बिठा दो और कार्ट का हैंडल अपने बड़े बच्चे को पकड़ा दो।
पुरे फ्लोर पे २-३ घंटे घूम के गृहस्थी का सारा सामान लेने के बाद बच्चो को कॅश काउंटर पर पड़ी चॉकलेट दिलवा दो। शॉपिंग की शॉपिंग , आउटिंग की आउटिंग।

२. मैच मेकिंग/नैन मटक्का
बाहर जाके खरीददारी करने का दूसरा फायदा यह है की जितने भी सिंगल भाई बंधू या देवियाँ है उनको एक मौका मिल जाता है चेक आउट करने का। कहते है की नज़रे मिली और इश्क़ हो गया , किन्तु नज़रे मिलने के लिए आपको घर से बाहर निकलना होगा और उसके लिए कोई अच्छा सा काम का बहाना चाहिए।आपने फिल्मो में देखा ही होगा कितने लोगो की कहानी दुकानो पर या बाज़ार की गलियों में नैन मटक्को से ही शुरू होती है।
मैं तो कहता हूँ की कुछ फिल्मे ऐसी बननी चाहिए जिनके नाम हो, "दो दिल मिले दूकान में ", "बिल देते देते दे दिया दिल", etc etc ...



३.  "We" time for couples:
जी हाँ आज कल के कपल्स के लिए "वी टाइम" याने के दोनों को अकेले में साथ बिताने (बतियाने)का समय निकालने बहुत ही मुश्किल है। पूरा दिन तो काम काज में निकल जाता है, शाम को खा पी के टीवी देख के सो जाने में और अगले दिन से फिर वही। वीकेंड में फ्री टाइम मिलता है तो दोनों अपना अपना कोई पर्सनल काम निपटा लेते है और बाकी बचा टाइम मोबाइल या  लैपटॉप की भेंट चढ़ जाता है। ऐसे में अगर शॉपिंग भी लैपटॉप/मोबाइल से ही कर लोगे तो आपस में जान पहचान कब करोगे ?
इसके लिए जाईये कम से कम राशन तो बाहर से खरीद के लाईये, आपस में बातें करने का मौका मिलेगा, किसे क्या पसंद है जानने का मौका मिलेगा और इसी बहाने सो कॉल्ड टीम वर्क भी हो जायेगा।


४. Men will be men actions:
अब इसके लिए क्या लिखू ? आप खुद ही समझदार है। ज्यादा जानने के लिए वीडियो देखे। किन्तु फेमिनिस्ट लोगो को चेता दू की यहाँ बात का बतंगड़ न बनाये ।


तो समझे आप , भारत में दुकाने और बाज़ार इतनी आसानी से बंद नहीं होने वाले।




नोट: चित्र गूगल सर्च के सौजन्य से







Thursday 4 June 2015

सफ़र(Suffer)

भारत के महाराष्ट्र राज्य में एक ख़ूबसूरत शहर है पुणे। इस शहर की बढ़ती हुयी आबादी और तरक्की में एक बहुत बड़ा हिस्सा आईटी प्रोफेशनल्स का है। जिस तेज़ी से शहर की सीमायें बढ़ रही है उस तेज़ी से सुविधाएँ नहीं बढ़ पा रही। पब्लिक ट्रांसपोर्ट के नाम पे गिनी चुनी बस और डूक्कड़गाड़ियां चलती है यहाँ जिनसे गुजारा होना बड़ा ही मुश्किल काम है साब। इसलिए हर आदमी की खुद की गाडी (२/३/४ व्हीलर) होना आवश्यक है।
जितनी शहर की आबादी उससे कहीं ज्यादा यहाँ की सडको पे ट्रैफिक रहता है। और क्या कहा आपने , ट्रैफिक सेन्स , जी वो क्या होता है यह किसी ने नहीं बताया हमें आज तक ?


पुणे शहर में प्रमुख कंपनियों के आईटी ऑफिस या तो पूर्व में हडपसर -खराड़ी - विमाननगर में है या पश्चिम में हिंजवडी में (जी यह जगहों के नाम है ना की द्वापर युग के राक्षसो के ). अभी ऐसे में कोई बेचारा जो की पूर्व के किसी क्षेत्र में रहता है और उसका तबादला पश्चिम वाले ऑफिस या स्पष्ट कहें हिंजवडी वाले ऑफिस में हो जाता है तो उस पर क्या बीतती होगी यह उसके सिवा वो ही बता सकता है जो हिंजवडी में रहता है और उसका ऑफिस हडपसर में हो जाता है।

हिंजवडी रोड


ऐसे में रोज रोज ऑफिस जाना रामगोपाल वर्मा की आग झेलने से कहीं ज्यादा दुष्कर है । रोज सड़ा हुआ, थकेला ट्रैफिक झेल के ऑफिस जाओ, लेट होने पर बॉस का सड़ा हुआ  चेहरा देखो फिर वापसी में उससे भी ज्यादा सड़ा हुआ ट्रैफिक झेल कर, जान पर खेलकर घर पहुँचो तो शकल  देखकर बीवी कहती है " जाओ भइया कल आना, अभी ये घर पे नहीं है " ।

ऐसे में साला आदमी को सपने भी अच्छे आये तो कैसे आये ?

यहाँ बात दुरी की नहीं है , रोजी रोटी के लिए एक साइड का ४०-५० किलोमीटर तो कोई भी तय कर ले किन्तु पुणे की सडको पर हडपसर से हिंजवडी या हिंजवडी से खराड़ी रोज रोज आना जाना मतलब अपने पिछले जनम के पापो की सजा भुगतने जैसा है। अब तो शायद नरक वालो ने भी अपनी सजा के मेनू में बदलाव  करके दुष्ट आत्माओ को पुणे की सडको पर छोड़ दिया होगा की भुगतो अपने कर्मो को यहाँ , यही तुम्हारी वैतरणी है जो  तुम्हे पार लगाएगी ।

हर रोज सुबह मगरपट्टा(एक और जगह का नाम, नाकि की दानव का ) से एक आईटी प्रोफेशनल सजधज के ऋतिक रोशन बनके अपनी बाइक पर हिंजवडी के लिए निकलता है और ऑफिस पहुँचते पहुँचते कब राखी सांवत बन जाता है पता ही नहीं चलता। और अगर ऑफिस की बस में आना जाना करे तो आदमी का आधा जीवन बस में ही गुजर जाये।

सिर्फ पुणे वालो का दर्द नहीं है यह, आप बैंगलोर में रोज़ाना कम से कम दो बार मारथल्ली फ्लाईओवर क्रॉस करने वालो से पूछिये की कैसा लगता है 1 घंटा घसीट घसीट के चलना ? "it's like a slow death" .

 हमने एक्सपेरिमेंट करने के लिए 2 लोगो को मगरपट्टा से हिंजवडी बाइक पर भेजा, 2 लोगो को BTM Layout से व्हाईट फिल्ड भेजा और at the same time 2 लोगो को 4 रेपट धर के दिए, कसम से रेपट खाने वाले लोग ज्यादा खुश दिखे ।

 हमारे इसी दर्द को देखते हुए इंसानियत के नाते ओला कैब्स और टैक्सी 4 श्योर ने वादा किया है की जल्द ही वो इन सारे बताये हुए रूट्स पर लो कॉस्ट एयर टैक्सी चलाएंगे। इसके लिए हिंजवडी और ITPL में हेलिपैड बनवाने के ऑर्डर्स दे दिए गए है ।

(अब दुआ करो की ये सपना सच हो और जल्दी हो , ताकि यह सफ़र थोड़ा सुहाना हो सके )








सभी चित्र गूगल महाराज के सौजन्य से



Monday 20 April 2015

बिरियानी

मुझे पता है की कईयों की तो लार टपक पड़ी होगी इस लेख का शीर्षक पढ़ के। हिंदुस्तान में रहो और बिरियानी से प्यार न करो ऐसा कैसे हो सकता है। लखनऊ से लेकर हैदराबाद तक, कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक बिरियानी की महक आपको अपनी और खींच लाएगी।

बिरियानी के चर्चे गली मोहल्ले तो छोड़िये आजकल फिल्मो में भी बहुत होने लगे है। वैसे तो बिरियानी मूल रूप से कभी शाकाहारी व्यंजन रहा ही नहीं किन्तु आजकल वेज-बिरियानी भी उतनी ही शिद्दत से बनायी और खायी जाती है जितना की कभी राजा महाराजा मटन बिरियानी खाया करते थे।
दूसरे व्यंजन तो आपको देखने पर ललचायेंगे किन्तु बिरियानी के प्रति आपका प्यार ऐसा है की बिना देखे दूर से ही अगर कही से महक आ जाये तो आपके पेट में हँसी और मुँह में पानी आ जायेगा। वैसे दम बिरियानी का दम निकाल दो तो वो बन जाता है पुलाओ, बिरियानी का ही भाई है। यह भी कहीं कम नहीं पड़ता सैकड़ो प्रकार से बनाया जाता है। पीस पुलाओ, कश्मीरी पुलाओ, बंगाली पुलाओ तो कहीं शाही पुलाओ के नाम से यह भी अपना रंग जमा ही लेता है।

अपने देश का कोई भी प्रदेश हो और किसी भी धर्म, जाती का समारोह हो बिरियानी और पुलाओ हमारी दावतों का अभिन्न अंग है। में खुद ४ साल हैदराबाद में रहा हूँ तो बिरियानी से तो अपना घर जैसा सम्बन्ध हो गया है। यह बात और है की शुद्ध शाकाहारी होने के नाते मेरी प्लेट में आने का सौभाग्य अब तक सिर्फ वेज बिरियानी को ही मिला है। किन्तु कसम संजीव कपूर और मास्टर शेफ की, शाकाहारी बिरियानी में भी जो मजा है न वो शायद हड्डियों वाली में न हो। खैर छोड़िये, बात बिरियानी की हो रही थी, तो उसी पर रहते है , इंसानो की तरह उसका क्लासिफिकेशन नहीं करना चाहिए।

बिरयानी एक ऐसी चीज है जो खुद अपने दम पर जितनी प्रसिद्द हुयी है उससे ज्यादा तो अजमल कसाब ने उसको नाम दिलाया है। दुनियाभर में कसाब की बिरियानी के चर्चे हुए और अगर यह सच है उसे जेल में बिरियानी मिलती थी तो सोचिये की कितनी ताकत है इस बिरियानी में।  एक आतंकवादी के सारे जुर्म कबूल करवा लाई।

आप ऐसा मत सोचियेगा की मैं भूखा नंगा बैठा हूँ और सुबह से खाने को कुछ मिला नहीं इसीलिए फालतू की चीजे लिखे जा रहा हूँ।  दर-असल आज बीवी ने वेजिटेबल दम बिरियानी बनाई थी और जब मैं खाने बैठा तो मसालों की महक से ही आह हा हा , लार टपक सी गयी। फिर जैसे ही पहला निवाला खाया तो पेट को उस अद्भुत आनंद की प्राप्ति हुयी जिसके लिए साधु संत तपस्या करते फिरते है।
किन्तु फिर मेरे दिमाग में आया की बेचारे चावल, सब्जियां और मसाले कितने कष्ट सहते है हमारी तृष्णा शांत करने के लिए। खौलते पानी में इन्हे उबाला जाता है और गरम तेल में तड़का लगाया जाता है उसके बाद परत दर परत एक के ऊपर एक इन्हे बिछा के दम घुटने तक पकाया जाता है। तब जाके तैयार होती है लजीज बिरियानी।

कितनी तपस्या, त्याग और कष्ट झेलती है यह बिरियानी, ऐसा सोचते सोचते मैं जैसे ही दूसरा निवाला उठाने लगा तो एक चावल छिटक के बोला।

"खाले हपशी खाले इतना मत सोच, हम तो बने ही इस लिए है, की हमें पका के तुम खाओ। "

 तभी गोभी का टुकड़ा भी मचल के बोला,

"हाँ हाँ हम इतना सब कुछ तुम्हारे लिए ही तो सहते है। कहाँ कहाँ से हमें लाया जाता है , काटा जाता है पकाया जाता है सिर्फ इसलिए की तुम्हारा पेट भर सके और तुम खुश रहो।"

 फिर दूसरा चावल बोला ,

"तुम इंसान तो एक साथ  एक देश, एक शहर और एक मोहल्ले तो क्या एक घर में शांति से नहीं रह सकते। हमेशा लड़ते झगड़ते हो, कभी जाती के नाम पर तो कभी धरम के नाम पर। कभी अमीरी के नाम पर तो कभी गरीबी के नाम पर। तुम लोग खुद के सिवा दुसरो का भला क्या ही सोचोगे। हमें देखो देश के अलग अलग कोने  से आये और अलग अलग जाती धरम के लोगो द्वारा हमें लाया गया है।हम चावल एक गरीब हिन्दू किसान के खेत से आये है, यह आलू एक दलित के हाथो उखाड़े गए थे और यह जो केसर डाला है न बिरियानी में वो एक मुस्लिम ने उगाया था फिर भी हम एक साथ मिलकर इतनी लजीज बिरियानी बन गए।  हम सब मिलकर, एक साथ एक बर्तन में एक ही आंच पर पक कर तुम जैसे कितने ही इंसानो का पेट और मन भरते है । हमें हर मजहब, जाती और वर्ग का इंसान उतने ही प्यार से खाता है जितने प्यार से हमे उगाया और पकाया गया। "

फिर पूरी की पूरी बिरियानी एक सूर में बोल पड़ी

"तुम इंसानो को भी ईश्वर ने बड़े प्यार से बना के भेजा है एक दूसरे का प्यार पाने के लिए, एक दूसरे की हिम्मत और सहारा बनने के लिए। किन्तु तुम लोग............. छोड़ भाई तू रहने दे यह सब, मत सोच इतना, खाले तू आराम से।"







Monday 6 April 2015

बीवी और शॉपिंग

यह लेख बीवियों के बारे में लिखा है तो इसका मतलब यह नहीं है की इसको सिर्फ शादीशुदा लोग ही पढ़ेंगे। आप उम्र और रिश्ते के किसी भी दौर से गुजर रहे हो, आपको पढ़ना चाहिए। खुद पे न बीती हो तो कम से कम  दुसरो के जख्मो से रू-ब-रू तो होना चाहिए।

बीवी और शॉपिंग का  रिश्ता बहुत गहरा है। कईं बातें और जुमले कहे गए है इस विषय पर और आगे भी कहे जायेंगे। बीवी को खुश रखने का सबसे सरल परन्तु महंगा उपाय है यह।
वैसे दुनिया के आधे से ज्यादा रईस पुरुष इसलिए खुश नहीं है कि वो रईस है, बल्कि इसलिए खुश है कि उनकी बीवियाँ सदैव शॉपिंग में व्यस्त रहती है और उनके पास फ़ालतू के झगड़ो के लिए समय ही नहीं होता।
हमारे यहाँ मिडिल क्लास पतियों की आफत यह है कि उनकी बीवियों को शॉपिंग का मौका तभी मिलता है जब घर में कुछ तीज-त्यौहार-शादी-ब्याह वगैरह हो। शॉपिंग करके भी उनका जी तब जल जाता है जब उनके जैसी same to same साड़ी या ड्रेस कोई और रिश्तेदार या पड़ौसी भी ले आये और आपके पड़ौसी की यह मासूम सी गलती आपकी जेब पर भारी पड़ती है।
दूसरी आफत इनकी यह है कि अमीरो की तरह सिर्फ कार्ड का भुगतान करके ये अपनी बीवी की शॉपिंग नहीं करवा सकते, इनको तो बीवी के साथ मॉल दर मॉल, दूकान दर दूकान भटकना पड़ता है उसकी पसंद की चीज के ख़ातिर। साड़ी पसंद आ जाये तो फिर मैचिंग की चप्पल के लिए भटको, चप्पल पसंद आयी तो चूड़ियाँ फिर नैल पेंट और न जाने क्या क्या।

इसी प्रकार मेरे एक दोस्त दीपू के साले की शादी के लिए उसको अपनी बीवी को शॉपिंग करवानी पड़ी थी। सारा दिन १४७ दुकानो पर १७६० साड़ियां देखने के बाद दीपू की बीवी को पहली दूकान पर जो दूसरे नंबर पर साडी दिखाई गयी थी वही साडी १४५ वी दूकान पर देखने के बाद पसंद आयी । इस बीच दीपू  ७ घंटो में कुल ८  किलोमीटर पैदल और २२ किलोमीटर गाडी चला चूका था । उसके बाद भी उसको इतनी ऊर्जा बचा के रखने की जरुरत थी कि वो अपनी बीवी को मैचिंग की चप्पल, बैग, ज्वैलरी, चूड़ी और कास्मेटिक भी पसंद करने तक उसके साथ एक मुस्कराहट लिए खड़ा रहे। ( अगर मुस्कान गायब हुयी तो ३ हफ़्ते  बाद भुगतान करना पड़ सकता है। ) 

बीवियों या यूँ कहे कि लड़कियों की यह अजीब बात होती है, इन्हे शॉपिंग की ख़ातिर कितना भी चला लो इन्हे थकान तो क्या माथे पे भी शिकन तक नहीं आएगी।  वहीं पति या आम पुरुष से आप जीम में चाहे जितना मर्जी हम्माली करवा लो आसानी से थकेगा नहीं परन्तु शॉपिंग करने के नाम पे दिमाग में पहले से फिक्स रहता है की किस दूकान से जाके क्या चीज उठा के लानी है और १० मिनट या ज्यादा से ज्यादा आधे घंटे में शॉपिंग ख़त्म। ज्यादा चलना, घूमना भटकना इनके बस की बात नहीं होती।

तो बात हो रही थी दीपू और उसकी बीवी की शॉपिंग की, सारा दिन बाज़ारो में भटकने के बाद, चप्पल को छोड़ कर बाकी सब मिल गया था। बीवी ने फ़ाइनली कहा थक गए है, घर जाके कौन खाना बनाएगा चलो यहीं से कुछ खाके घर चलते है, चप्पल फिर बाद में फ़ुरसत से देखेंगे।

घर पहुंचे तो दीपू की बैटरी एकदम डाउन हो चुकी थी उसने तुरंत सोने की इच्छा जताई। इसी बात पर बीवी भड़क कर बोली, अभी से क्यों सो रहे हो, जो ड्रेस और साड़ी लाये है वो ट्राय करके दिखाती हूँ। अभी फ़ोन या लैपटॉप लेके बैठोगे तो नींद नहीं आएगी।  दीपू ने भी "बला टालने" के लिए कहा, अच्छा ठीक है जल्दी से दिखाओ। फिर पत्नी जी पुरे साजो सामान के साथ सज-धज के एक एक करके अगले २ घंटे अपनी ड्रेस ट्राय कर कर के दिखाती है। "कैसी लग रही हूँ ?" बेचारा थका मांदा दीपू एनर्जी जुटा के हर बार कहता है "अच्छी है , "यह भी अच्छी है "
 

सिर्फ अच्छी है ?  इतनी मेहनत से मेने पसंद करी, पहन के दिखाई और आप कह रहे हो "अच्छी है " ?रहने दो आपको तो कोई इंटरेस्ट ही नहीं है, वहां बाजार में भी मेरी मदद करवाने के बजाये दूसरी दूसरी  लड़कियों को ही घूर रहे थे आप।जाने दो आपसे मुझे कोई बात नहीं करना।


धम्म से दरवाजा बंद होता है और बीवी एक करवट से पलंग का एक कोना पकड़ के सो जाती है।

और इसी के साथ होता है इति शॉपिंग पुराण।

देखा आपने "शॉपिंग" के नाम से सारे पतियों की हवा टाइट क्यों हो जाती है।





नोट: सारे पिक्स गूगल इमेज सर्च के माध्यम से

Friday 20 March 2015

स्मार्टफोन की लत


स्मार्टफोन पर सोशल मिडिया की लत, इस विषय पर अब तक बहुत कुछ लिखा पढ़ा जा चूका होगा। कईं सेमिनार हो चुके होंगे, ब्रिटेन के किसी होनहार ने कोई रिसर्च पेपर तक प्रदर्शित कर दिया होगा। परन्तु इस लत को  IIN और एयरटेल वाली लड़की के सिवा किसी ने जिंदगी जीने की लठ (छड़ी)साबित नहीं किया होगा।

आप में से कितने ही लोग ऐसे होंगे जिन्हे कभी न कभी फेसबुक/स्मार्टफोन की लत लगी होगी या अभी भी है ? एक बात बता दू आपको कि यह लत किसी भी प्रकार की अन्य लतो की तुलना में जितनी ज्यादा खतरनाक है उतनी ही गुणकारी भी। आपको अगर शराब या सिगरेट या दोनों की लत है तो आप दिन में कितनी बार पीते होंगे ? सिगरेट ४ बार या  ६ बार , शराब  १ बार या २ बार , गुटखा खैनी मुश्किल से दिन में २ बार। माफ़ कीजियेगा अगर यह आंकड़े आपकी पर्सनालिटी पर खरे न उतरे। परन्तु अगर आपको फेसबुक या व्हाट्सऐप की लत लगी हुयी है तो जनाब पूछिये ही मत। दिन में १००-१०० बार आप फेसबुक या व्हाट्अप खोल खोल के देखेंगे बिलकुल वैसे ही जैसे पुरातन समय में पहले प्यार में पागल इंसान अपनी माशूका या माशूक़ के पुराने मेसेजेस(SMS ) भी बार बार पढता था। आजकल तो पहला वाला प्यार ही बार बार हो जाता है, यह अलग बात है की हर बार माशूका/माशूक़  बदल जाती है।




परन्तु अगर आप "बी-पॉजिटिव" वाले नजरिये से देखे तो यह लत कईं मायनो में समाज की दशा सुधारने की दिशा में बहुत ही कारगर सिद्ध हो सकती है।कैसे , यह जानने के लिए चलते है रोहित के घर।

 रोहित को जब भी उसके पिताजी डांट लगाते है तो वो चुपचाप उठकर अपने कमरे में जाके अपना लैपटॉप खोलकर बैठ जाता है। तुरंत फेसबुक पर स्टेटस अपडेट करता है "फीलिंग इरिटेटेड", उसके बाद धड़ाधड़ कमेंट्स आने शुरू हो जाते है, लोग बाग़ सोशल मीडिआ पर दिल खोलकर अपनी सांत्वना प्रकट करते है जिस से रोहित का मूड फ्रेश हो जाता है। 
वहीं अगर यह पुराने जमाने का रोहित होता तो या तो घर छोड़कर ही चला जाता या फिर अपने किसी नालायक दोस्त के पास जाकर अपना दुखड़ा सुनाता। बदले में वो दोस्त कुछ न कुछ "उलटी पट्टी" पढ़ा ही देता।

एक और उदाहरण लेते है अपने दीपू का, दीपू को उसकी गर्लफ्रेंड ने सिर्फ इसलिए छोड़ दिया था क्योंकि दीपू ने उसे पिछले नौ दीनो में एक भी सरप्राइज नहीं दिया था। दीपू का दिल टूट चूका था, एकदम उदास दीपू घर आकर अपने स्मार्टफोन से फेसबुक पर स्टेटस डालता है "फीलिंग ब्रोकन " बदले में उसको ढेरो सांत्वनाएं ही नहीं मिलती बल्कि एन्जेल प्रिया और सिमरन बेब  जैसी ढेरो खूबसूरत लड़कियों के प्रपोज़ल  भी आ जाते है। इसी ले साथ दीपू के प्रेम प्रसंग का सिस्टम रिबूट हो जाता है। अगर यहाँ भी पुराने जमाने का दीपू होता तो सीधा "अल्ताफ राजा" या "पंकज उधास" बन कर "मयखाने" की ओर दौड़ लगाता और खुद को नशे की लत लगा बैठता।


 यही नहीं आजकल व्हट्सऐप की नयी लत लगी है अपने दोस्तों को। वो भी बहुत फायदेमंद सिद्ध हो रही है। आपको अकेले बैठे बैठे बोरियत हो रही हो तो तुरंत आपका कोई दोस्त या ग्रुप मेंबर एक धांसू चुटकुला भेज देता है या कोई "फ़िल्मी गाना बताओ" करके पहेली भेज देता है तो आपका समय बड़ी आसानी से बर्बाद व्यतीत हो जाता है। यही नहीं अगर आप पत्नी से पीड़ित है और बुरी तरह से मन व्यथित है तो भी आपके कईं दोस्त आपको "पत्नी पीड़ित स्पेशल" जोक्स भेजते रहेंगे जिन्हे पढ़कर आप हल्का महसूस करेंगे।

तो देखा आपने किस तरह से सोशल मीडिआ की इस लत ने हमारी युवा पीढ़ी को न केवल बुरी संगतो से बचा के रखा है बल्कि कईं दूसरी भयानक लतो से भी दूर रखा है ।

किन्तु एक बात सामने आयी है कि ज्यादातर पत्नियां अपने पति की इस व्हाट्सएप या फेसबुक की लत से खफा हो जाती है। उन्हें मैं समझाना चाहता हूँ कि देखिये आपके पति आपके पास ही बैठे है, अपने दोस्त के साथ बातें कर रहे है वो भी बिना कुछ बोले चाले एक दम "म्यूट" अवस्था में। सोचिये आपका कितना बड़ा फायदा है इसमें , एक तो वो कहीं बाहर जाकर अपना मूह काला मूड फ्रेश नहीं कर रहे और दूसरा उनके कोई दोस्त यार आपके घर आके धमाल नहीं मचा रहे ;और इन सबसे बड़ी बात आप अपने पति की गोद में लेटकर बड़े इत्मीनान से "यह रिश्ता क्या कहलाता है"  या "ससुराल सीमर का"   जैसे बेहद ही घटिया उम्दा  सीरियल का लुत्फ़ ले सकती है। इतनी सारी चीजों  के साथ साथ अगर गलती से आप रूठी भी तो बेचारा पति उसी स्मार्टफोन से आपके लिए कुछ न कुछ गिफ्ट भी आर्डर कर देता है। तो देवियों आप के पति का फ़ोन आपका दुश्मन नहीं, सबसे अच्छा दोस्त है।

तो साथियों स्मार्टफोन की लत कतई बुरी बात नहीं है अपितु इसके सहारे कईं लोग अपनी  जिंदगी के कृत्रिम असली मज़ो का लुत्फ़ उठा रहे है। 





सभी चित्र गूगल इमेज सर्च के सौजन्य से


Friday 20 February 2015

विरोध करो

हमारे देश में ३ विशेष प्रकार के लोग आपको ज़रूर मिलेंगे, एक जो आपकी किसी भी बात पर "हाँजी" की मुंडी हिलाएंगे, दूसरे वो जो आपको हर मोड़ पर, हर कदम पर "राय" देते मिलेंगे और तीसरे वो जो आपकी हर बात का "विरोध" करेंगे। ताज़ा सर्वे के आंकड़े बताते है की तीसरे टाइप के याने की विरोधी स्वाभाव के लोग दिन ब दिन बढ़ते ही जा रहे है।

हर जगह हर कोई किसी न किसी बात का विरोध कर रहा है, विधानसभाओ में विपक्षी दल सत्तारूढ़ दल का विरोध कर रहे है, पत्नियां पतियों का विरोध कर रही है, पप्पू अपनी मम्मी का विरोध कर रहा है , मम्मी मोदी का विरोध कर रही है , सेंसर बोर्ड गालियों का विरोध कर रहा है  और हम अपने सारे विरोध गालियां निकाल के कर रहे है।

अभी अभी वेलेंटाईन डे बीता, हर साल की तरह इस साल भी बहुत दिलजलों ने इसका विरोध किया। शादी से पहले हमने भी गर्लफ्रेंड बनाने की कोशिश की तो हमारे घरवालो ने विरोध किया और शादी के बाद कोशिश की तो घरवाली ने विरोध किया तो तैश में आकर हमने भी इस वेलेंटाईन डे का विरोध कर डाला।

खैर अगर इतिहास खंगाले तो विरोध करना भारतियों के स्वाभाव में था ही नहीं, किन्तु जब से गांधी जी ने अवज्ञा आंदोलन का पाठ पढ़ाया और उस पाठ को हमने इतिहास की किताबो में रटा तब से हमे विरोध करने की आदत सी हो गयी है। यह बात और है की हमारा विरोध कहीं नोटिस नहीं होता न ही उस चीज से बच पाते है जिसका विरोध हम करते है।

मसलन स्कूल न जाने का , सुबह जल्दी न उठने का , होमवर्क न करने का , खेलने न जाने देने का , बर्फ का गोला न खाने देने का और कद्दू, करेले, बैगन, मेथी, पालक, मूंग दाल का विरोध तो आपको याद ही होगा जो बचपन में बहुत किया। टाँगे पटक पटक के किया, मूह फाड़ के, दहाड़े मार के और जमीन पर लेट के किया, किन्तु इतना विरोध करने से आखिर मिला क्या ? कुछ नहीं।

इससे तो अच्छा होता की हमारी माँ ने ही बाबूजी का कुछ विरोध किया होता, तो कम से कम हम इस निर्दयी दुनिया में आने से तो बच जाते।  बचपन में कुचले गए हमारे विरोध की खुन्नस हम उम्रभर किसी न किसी तरह का विरोध करके निकालते रहते है।

आज की दुनिया में तो आलम यह है की अगर सारी दुनिया किसी चीज का विरोध कर रही है और आप कुछ नहीं कर या कह रहे तो आप एक नंबर के चु**ये करार दिए जायेंगे। आजकल अपना विरोध दर्ज करवाने के लिए आपको किसी अनशन पर थोड़े ही बैठना है न ही पुलिस के डंडे खाने है। सोशल मिडिया का ज़माना है भई और इस ज़माने में विरोध करना कितना आसान है, जिस किसी ने भी विरोधी स्वाभाव की पोस्ट डाली हो  उसपे जाके बस एक "Like" बटन ही तो दबाना है, या किसी की पोस्ट अच्छी न लगे तो उसको थोड़ा गरिया दो याने गालियां पटक दो बस हो गया विरोध और आप बन गए इंटरनेट के "Intellectual" प्राणी। कुछ ज्यादा तूफ़ानी करना हो तो उस पोस्ट की अपने निहायती घने नेटवर्क(फेसबुक, व्हाट्सप्प, ट्विटर) में आग की तरह फैला दीजिये। और ऐसा करके आपने अपने हिस्से की समाज सेवा कर ली मानो।

अब अगर राजनीती की बात करे तो विपक्ष में बैठी पार्टियों का भी तो एक ही काम है , विरोध करो। कुछ भी हो जाये बस सरकार के कामो का विरोध करो। सरकार ने गरीबो के लिए बैंक खाते खुलवाये, विरोध करो, सरकार ने उद्यमियों की सुविधा के लिए कदम उठाये, विरोध करो, बस किसी न किसी तरह विरोध करो। जब कांग्रेस की सरकार ने परिवार नियोजन लागू किया तब लालू विपक्ष में थे उन्होंने इस योजना का विरोध किया, परिणामस्वरूप दर्जन भर बच्चे पैदा कर डाले।  अभी हमारी कांग्रेस पार्टी ने तो आतंकवादियों के इरादो पर पानी फेरने वाले सुरक्षाकर्मियों का ही विरोध कर दिया। अब तो हालत यह है की विपक्षी पार्टियों के अंदर ही एक दूसरे का विरोध शुरू हो गया है।ताजा हाल यह है की बिहार में एक ही दल के २ मुख्यमंत्री एक दूसरे के विरोध में खड़े है।

परन्तु असल बात तो यही है की जिसका जितना ज्यादा विरोध वो चीज उतनी तेज़ी से फैलती है , उदाहरण देखिये। बचपन में होमवर्क का विरोध किया तो वो बढ़ गया, खेल और टीवी पर पाबन्दी का विरोध किया तो १० और चीजो पर पाबन्दी लग गयी। आज की बात करे तो मोदी जी का १० सालो तक भयानक विरोध किया गया, किन्तु फल क्या निकला ?वो उतनी ही प्रचंडता से सरकार में आये। इधर दिल्ली में मोदी ने केजरीवाल का विरोध करने में पूरी ताकत झोंक डाली, और इस विरोध का परिणाम क्या निकला वो तो आप जानते है। आतंकवाद का विरोध पूरी दुनिया सालो से करती आ रही है, किन्तु क्या हुआ? रुकने की बजाये यह तेज़ी से विश्व के हर देश में फैलता जा रहा है। स्वास्थ्य की बात करे तो हम लोग एबोला और स्वाईन फ्लू का कितना विरोध कर रहे है फिर भी रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। और सबसे बड़ा उदहारण फिल्म PK, कितना विरोध हुआ इस फिल्म का, किन्तु सबसे ज्यादा कमाई भी इसी फिल्म ने की।

इतने सरे उदाहरणों से कुछ समझे आप ? मतलब ये है की जिस चीज का जितना तगड़ा विरोध करो वो उतनी ही तेज़ी से फैलती है, सीधे सीधे न्यूटन महाराज का तीसरा नियम लागू हो रहा है।

तो अब ध्यान रखे, जब भी पेट्रोल के दाम घटे तब आप विरोध करे, जब भी अर्थव्यवस्था सुधार की बात हो आप विरोध करे, जब भी सेंसेक्स ऊपर चढ़ता दिखे तुरंत उसका विरोध शुरू करे, सफाई अभियान का विरोध करे, स्वाईन फ्लू और अन्य बीमारी से बचने के लिए जो निर्देश दिए है उनका विरोध करे, यहाँ तक की अगर कोई सरकारी कर्मचारी रिश्वत न ले तो उसका भी विरोध करे, फिर देखिये कैसे हमारा देश तरक्की करता है।

मैंने तो सरकार को चिट्ठी लिख के अपना यह प्रस्ताव भी भेजा है की सरकार अपने ख़ुफ़िया सोशल नेटवर्किंग डिपार्टमेंट को ही यह काम सौंप दे, विरोध करने का, बाकी हम "लाइक और शेयर" के बटन तो दबा ही देंगे।

तो कुल मिलाकर मन की शांति और देश की तरक्की के लिए विरोध करते रहिये। हम पैदा ही विरोध करने और सहने के लिए हुए है।




Wednesday 11 February 2015

जीन्स V/s फॉर्मल पैंट

उस इंसान(विशेषतः पुरुष प्रजाति) को अपनी कमर की साइज बढ़ने का अहसास जल्दी ही हो जाता है जो नित्य प्रतिदिन फॉर्मल्स कपडे पहन के काम पे जाता है। जीन्स वालो को इतना जल्दी समझ नहीं आता, उन्हें तो तब समझता है जब खड़े खड़े जूते की लेस बांधना पड़ जाये। 

फॉर्मल्स पहनने वाले जब फैलने लगते है तो सबसे ज्यादा बुरा उनके कपड़ो को लगता है। शर्ट तो फिर भी फंसा लेते है शरीर पर किन्तु पैंट सड़ा सा मूँह बना लेती है जब उसको कमर पे चढाने की कोशिश की जाती है। जैसे तैसे पेंट ऊपर खिसकती है तो उसकी बटन रूठ जाती है और लगने से साफ़ मना कर देती है। पेंट को जैसे तैसे फंसा भी लो तो बेल्ट हड़ताल पे बैठ जाता है, बेल्ट की नजर में हम चुलबुल पाण्डे होते है क्योंकि हर महीने उसमे एक नया छेद करते है।


 आजकल के रेडीमेड कपड़ो के ज़माने में पैंट्स ऐसे भी नहीं होते की टेलर को २० रुपये देके कमर बढ़वा लो। ले देके आपके पास २ ही विकल्प होते है, या तो नया खरीदो या फिर कमर को कम कर लो। पहला जेब पर भारी पड़ता है तो दूसरा जेब और शरीर दोनों पर। मैं दोनो ऑप्शंस को दरकिनार कर तीसरे विकल्प के तौर पे जीन्स अपना लेता हूँ। जीन्स का स्वाभाव बिलकुल कट्टरपंथी नहीं है साहब, बहुत ही फ्लेक्सिबल होती है। आप ३२ की लेके आये थे और अब कमर ३४ हो गयी तो भी एडजस्ट हो जाएगी। 

सोमवार की अलसाई सुबह में मेरे फॉर्मल पेंट ने मुझे धुत्कार दिया तो मैंने भी तैश में आकर जीन्स को अपने बदन से लगा लिया। सप्ताह के पहले ही दिन आप सुबह सुबह ऑफिस जीन्स पहन के जाओ वो तब तक ठीक है जब तक की कोई HR बाला या बाल गोपाल आपको रोक के टोक न दे। मेरे नसीब तो गधे की पूँछ के बाल से लिखे हुए है, घुसते से ही सुनने को मिला "एक्सक्यूज़ मी, आप ड्रेस कोड का वोइलेशन कर रहे है" 

 मैंने मन ही मन सोचा की हद्द है यार वहां सीमा पर पड़ौसी देश सीज़फायर का वोइलेशन किये जा रहा है, चुनावो में नेता कोड ऑफ़ कंडक्ट का वोइलेशन कर रहे है, सडको पर हजारो लोग ट्रैफिक रूल्स का वोइलेशन कर रहे है उनको कोई कुछ नहीं कह रहा,यहाँ इस नन्हे से एम्प्लोयी का ड्रेस कोड वोइलेशन तुम्हारी चिंता का विषय बन गया। 

खैर मैंने उस HR सुंदरी से कहा की मैडम, दर-असल जिस हिसाब से हमारी कमर बढ़ रही है न उस हिसाब से आप सैलेरी नहीं बढ़ा रहे हो, अब हर महीने नया फॉर्मल पेंट खरीद के तो नहीं पहन सकते न। मेरी बात सुनकर उसकी आँखों में पानी भर आया और उसने अपनी भीगी पलकें झुकाके मुझे अपनी सीट पे जाने को कहा। 

कुछ ही देर बाद में देखता हूँ की एक ई-मेल आयी हुयी है की इस बार सबको सैलेरी हाईक उनकी कमर की साइज़ के हिसाब से मिलेगा। जिसकी ३६ इंच उसको ३६ टक्का और जिसकी ४० इंच उसको ४० टक्का। मेरे पीछे वाले क्यूबिकल की कुछ ज़ीरो साइज़ लड़कियों को छोड़ के पूरा ऑफिस जश्न के माहौल में डूब चूका था। मैं भी चिल्ला रहा था धन्य है यह कंपनी मैं अब यह कंपनी नहीं छोड़ूंगा, नहीं छोड़ूंगा , कभी नहीं छोड़ूंगा 

 ……………इतने में  बीवी ने एक जग पानी मेरे मुँह पे डाला और चिल्लायी , पहले यह रज़ाई छोडो और उठो, मंडे है आज ऑफिस नहीं जाना क्या ?



इसे कहते है अच्छी खासी "मोटी" सैलरी के "सपने" पे पानी फेरना। 



----------------------चित्र गूगल महाराज की कृपा से सधन्यवाद प्राप्त 

Monday 2 February 2015

टीवी का अत्याचार

आजकल चुनावो का मौसम चल रहा है और पार्टियां अपने अपने वादे-दावे ले ले कर जनता के पास जा रही है। परन्तु ८० प्रतिशत जनता को न फ्री wifi चाहिए, न फ्री पानी-बिजली चाहिए और न ही सस्ता पेट्रोल, उनकी तो एक ही मांग है की कैसे भी करके टीवी चैनल्स पर होने वाले भारी अत्याचार से मुक्ति दिलवा दो। अब यह और बात है की किसी भी पार्टी के नेता ने ऐसी किसी भी मांग को अब तक स्वीकार नहीं किया है। कैसे करे, आखिर नेता भी तो टीवी पर आ आ कर मासूम जनता पर अत्याचार ही कर रहे है।

एक समय था जब मर्द बीवी के अत्याचार से त्रस्त रहता था, परन्तु अब वही मर्द टीवी के अत्याचार से त्रस्त नज़र आता है। आपके घर में अगर एक भी महिला है तो आप ने यह दर्द कभी न कभी तो महसूस किया ही होगा जब आपको मन मार कर, खाना खाते समय,  टीवी पर बालिका-वधु जबरन देखना पड़ा होगा।

सीरियल किलर्स का ज़माना गया और किलर सीरियल्स का ज़माना है भाई लोगो।



अभी अभी तो लोगो ने ओबामा तक से विनती कर डाली की भैया हमारे देश की दूसरी समस्याएं तो जब ख़त्म होगी तब होगी, तुम आतंकवाद, पर्यावरण से निपटते रहना, पहले ससुराल सिमर का से निजात दिलाओ। 
आपकी भावनाओ का तो पता नहीं, परन्तु मुझे कभी कभी जेठालाल पर भी दया आती है जब उसकी "दया" को देखता हूँ, और तो और बेचारी बबिता, मासूम भोली बबीता, उसको तो कोई जेठालाल से बचा लो। तारक मेहता खुद जिनकी लेखनी इन सब की जिम्मेदार है वो भी अब मूह छुपाते घूमते होंगे अपने इलाके में। 

"साथ निभाना साथिया" और "यह रिश्ता क्या कहलाता है" जैसे धारावाहिको में दिखाए जाने वाले बेहद अमीर परिवार भी हमेशा समस्याओं से ग्रसित रहते  है। एक मुसीबत से निकलते ही दूसरी तैयार रहती है, बेचारो का कोई त्यौहार, कोई रस्म, कोई पूजा-पाठ ठीक से नहीं हो पाता, हर घडी कोई न कोई अड़चन आती ही रहती है। अगर हमें इनके अत्याचारों से नहीं बचा सकते तो इन बेचारे परिवारो को कोई तो मुक्ति दिलाओ इन दिनोदिन की बढ़ती मुसीबतो से। 

उधर बिग बॉस में "सलमान के वार " से बचे तो "फरहा खान" के अत्याचार से रूबरू हो गए, कोई तो पार्टी होगी इस चुनाव में जो बिग बॉस पर रोक लगाएगी। एक पार्टी ने तो दिल्ली में लाखो सी. सी.टी. वी कैमरे लगवाने का वादा किया है, मतलब पूरा दिल्ली अब बिग बॉस का घर होगी। समझ नहीं आ रहा ख़ुशी की खबर है या दुःख की। 

आज हमारे देश के युवाओ को ड्रग्स से जितना खतरा नहीं होगा उससे कहीं ज्यादा एम टीवी रोडीज़ से है, जो लगातार ८ वर्षो से एक से एक बेहतरीन चु*** (बीप बीप बीप ) खोज खोज कर दर्शको को परोस रहे है।  

अगर आपको लगता है की आपके दिमाग में ज्ञान का ओवरफ्लो हो चूका है तो आप उपरोक्त उल्लेखित धारावाहिको में से कोई भी एक देख लीजिये। इनसे बेहतर बुद्धिविनाशक और ज्ञान हारक चीज कुछ नहीं है। आप फिर से एक दम तरोताजा होकर ज्ञान की तलाश में निकल जायेंगे। 

 सुनने में तो यहाँ तक आया है की नरक लोक में पापियों को दी जाने वाली यातनाओं में फेर-बदल कर दिया गया है।  अब उन्हें गरम तेल की कढ़ाई में नहीं तला जायेगा, बलकि पाप के हिसाब से प्रतिदिन बिना विश्राम के उन्हें टीवी में यह सारे धारावाहिक एक के बाद एक दिखाए जायेंगे। इस बात से तो साबित हो गया है की आदमी को अपने पापो की सजा इसी जीवन में किसी न किसी चैनल पर भुगतनी पड़ेगी। 

और जब तक यह लेख पूरा होता उससे पहले ही एक खुश खबरी आयी है की अन्ना का अगला आंदोलन अब भ्रष्टाचार के खिलाफ नहीं, टीवी के अत्याचार के खिलाफ होगा। तो भाईयों इसी बात से हम आशा कर सकते है की इस आंदोलन के बाद भी एक और पार्टी बनेगी और उम्मीदों के मुताबिक हमारे लिए टीवी रोकपाल बिल लेकर आएगी। 

तब तक के लिए कोशिश करो की नया चैनल "एपिक" देखने को मिल जाये जो की फिलहाल सारे चुतियापे का एन्टीडोट है । 

नोट : लेख में प्रयोग की गयी मामूली अभद्र भाषा के लिए क्षमा, और अगर दी गयी गाली की तीव्रता कम लगे तो खुद से बढ़ा लीजिये। 



Friday 23 January 2015

केवल वयस्कों के लिए

नोट: यह लेख कोई चुनावी स्टंट नहीं है, न ही किसी प्रकार का कोई प्रलोभन है, वास्तव में यह लेख उन्ही पाठको के लिए है जो १८+ उम्र के है या वयस्क है। अगर आप १८ साल से कम उम्र के है तो कृपया आगे न पढ़े।
धन्यवाद। 

बात थोड़ी पुरानी है, तब की जब मैं खुद वयस्क नहीं था। मैं अपने गांव के शासकीय हिन्दी माध्यमिक विद्यालय की कक्षा ४ का विद्यार्थी था। कुल जमा १४ विद्यार्थियों की कक्षा जिनमे से मात्र ३ कन्यायें। जी हाँ Gender Ratio की बात करने वालो यही हाल रहे है हमारे विद्यालयीन जीवन के अंत तक। खैर उस पर बाद में चर्चा करेंगे, बात करते है मेरे विद्यालय की, हमारा विद्यालय बहुपयोगी हुआ करता था। पुरे गांव भर के उत्सव, जलसे और १३वे का नुक्ता भी हमारे विद्यालय परिसर में होता था। और जिस दिन भी ऐसा कोई कार्यक्रम होता तो उस दिन आधी छुट्टी तो मिलती ही साथ ही साथ दावत अलग से मिलती। इतना ही नहीं, रात होते होते विद्यालय का मैदान भैंस, बैल, गाय और बछड़ो से भर जाता था। आप लोग जिन विद्यालयों में पढ़े होंगे वहाँ शायद शनिवार को आपका हॉफ डे हुआ करता होगा, परन्तु हमारे यहाँ मंगल-अमंगल कार्यक्रम के अलावा हर मंगलवार को भी हॉफ डे हुआ करता था। ऐसा इसलिए नहीं की हमारे प्राचार्य जी हनुमान जी में अगाथ श्रद्धा रखते थे बलकि प्रति मंगलवार हमारे गांव का प्रसिध्द पशु हाट बाजार लगता था। हाट में हमारा विद्यालय प्रांगण फिर एक बार काली चमकीली, रंगीन सींगो वाली भैंसो से, अतरंगी मुर्गो से, गाय बैल बछड़ो से और बकरे बकरियों से भर जाया करता था।



इतना ही नहीं, विद्यालय का इतना सदुपयोग होने के बाद प्रति रविवार हमारा विद्यालय हमारे गांव का स्वास्थ्य केंद्र बन जाया करता था। गांव के लोगो को हर प्रकार की दुःख तकलीफ की दवा मुफ्त में बांटी जाती थी। यह बात और है की गांव वालो की कुछ तकलीफे ऐसी है जिसकी कोई दवा आज तक नहीं बनी। तमाम मुफ्त में बांटी जाने वाली दवाईयों के पैकेट अगर बच जाते तो प्राचार्य के कक्ष में रख दिए जाते थे, परन्तु उस रविवार को प्राचार्य के कक्ष की चाबियां न होने से सारा सामान हमारी कक्षा में ही रख दिया गया।

आज जिस सोमवार को हम Bloody Monday कहते है, उस समय वही सोमवार हमें बड़ा अच्छा लगा करता था। आमतौर पर विद्यालय जल्दी पहुंच कर अपना बैग अपनी कक्षा में पटक कर प्रार्थना से पहले हम लोग सितोलिया खेला करते थे। उस दिन भी हम जल्दी पहुंचे और जब अपनी कक्षा में गए तो वहां कल के बचे हुए पैकेट रखे हुए थे। सरकारी विद्यालयों में इतना भी बुरा नहीं पढ़ाते की चौथी कक्षा तक आते आते हमें पढ़ना न आये। उन पैकेट्स पर लिखा पढ़ा तो टीवी पर आने वाला विज्ञापन याद आया, जो समाचार के पहले और चित्रहार के बीच में आया करता था और जिज्ञासाएँ जागृत कर जाता था। जिज्ञासा एक ऐसा कीड़ा है जो तब तक कुलबुलाता है जब तक की हम उसका कोई इलाज न ढूंढ ले। वो दवाई के पैकेट्स कुछ इलाज करे न करे पर हमारी उस टीवी के विज्ञापन की जिज्ञासा का इलाज जरूर थे। हमने तुरंत वो पैकेट्स खोले, और जब उनके अंदर रखे छोटे छोटे पैकेट्स  खोले तो हमारी जिज्ञासा शांत होने की बजाये बढ़ गयी थी।

अब जिज्ञासा यह थी की आखिर बच्चो के खेलने की चीज के विज्ञापन में बच्चे क्यों नहीं थे  दो बड़े लोग "प्यार हुआ इकरार हुआ है, प्यार से फिर क्यों डरता है दिल" गाना क्यों गाते थे। हालांकि एक बात समझ में आ गयी थी की डीलक्स निरोध और कुछ नहीं बलकि गुलाबी गुब्बारे हुआ करते थे। 


Thursday 15 January 2015

जिंदगी के मासूम सवाल

सवाल जवाबो में उलझी इस जिंदगी में हम निरंतर जवाब देते हुए आगे बढ़ते रहते है। जिंदगी भी कभी चुप नहीं बैठती सवाल पे सवाल दागती ही रहती है। तभी तो परेशान होकर  गुलज़ार साहब ने लिखा "तुझसे नाराज नहीं जिंदगी, हैरान हूँ मैं, तेरे मासूम सवालो से परेशान हूँ मैं "

हमने जिंदगी के ऐसे ही कुछ "मासूम" से सवालो की एक सूचि संकलित की है जिनसे आपका पाला अवश्य ही पड़ा होगा। यह वो सवाल है जिनसे अरनब गोस्वामी भी एक बार तो परेशान हुआ ही होगा।




विद्यालय में पहली कक्षा से लेकर १२ वी कक्षा तक जो सवाल आपको बहुत तंग करते है उनमे से सबसे ऊपर है
 रिजल्ट कैसा रहा ? यह सवाल परीक्षा में पूछे गए सवालो से भी ज्यादा परेशान करता है। 
फिर 
क्या विषय ले रहे हो १०वी के बाद ? इस सवाल के जवाब में हम और हमारे घरवाले कभी एक मत नहीं होते। 

फिर जैसे तैसे १२वी हो जाये तो

कौन से कॉलेज में एडमिशन ले रहे हो ? (अगर कोई ढंग का कॉलेज मिल जाये तो ठीक नहीं तो अगले ३-४ साल भुगतो इस सवाल और इसके जवाब को )

फिर रिजल्ट कैसा रहा ? ( हर सेमेस्टर/साल, घूम के फिर यही सवाल आ ही जाता है )
अब कॉलेज जाना शुरू हो गया, और गलती से थोड़ा बन-ठन के निकले तो जो सवाल तैयार रहता है वो है 
किसी के साथ कोई चक्कर तो नहीं चल रहा ? ( यह सवाल डायरेक्ट नहीं पूछा जायेगा, घुमा फिरा के पूछेंगे)

कॉलेज खत्म होते होते अगला भयानक प्रश्न तैयार हो जाता है 
प्लेसमेंट हुआ ? कहाँ हुआ ? ( घरवालो से ज्यादा पड़ौसी चिंतित रहते है, जैसे उनके घर राशन नहीं आएगा अगर मेरा प्लेसमेंट नहीं हुआ तो )
हो गया तो नेक्स्ट क्वेश्चन 
कितना पैकेज है ? ( "बस इतना हमारे साढू के भतीजे का तो इतना है", अरे कितना भी हो कौनसा तुम्हारे अकाउंट में जाने है  )

फिर जैसे तैसे नौकरी मिल भी गयी तो हमारे ही अन्य दोस्त जो हमारी ही कंपनी में या अन्य कंपनी में काम कर रहे होते है, पूरा साल एक ही सवाल करेंगे,
अप्रैज़ल हुआ ? कितना हाईक मिला ?

और गलती से आप आय. टी. में हो तो तैयार रहो की साल में १२ बार यह सवाल भी आपको तंग करेगा की "फॉरेन-वॉरेन गए की नहीं एक बार भी "

फिर जिंदगी का सबसे ज्यादा दोहराने वाला और सबसे ज्यादा चिढ दिलाने वाला प्रश्न जो आपके जीवन से जुड़ा हर व्यक्ति आपसे पूछेगा
शादी कब कर रहे हो ?
शादी कब कर रहे हो ?
शादी कब कर रहे हो ? ( हर बार, हर कोई पूछेगा, जब तक की हो नहीं जाती,  इस सवाल पर तो पूरी किताब लिखी जा सकती है )

झल्ला के ही सही आप शादी कर लेते है और उसके तुरंत बाद, अगला यक्ष प्रश्न हाजिर हो जाता है
खुशखबरी कब दे रहे हो ? ( पहले साल )
खुशखबरी कब दे रहे हो ? ( दूसरे साल )
इस साल तो हो ही रहे हो न दो से तीन ( हर साल, जब तक की तीसरा आ नहीं जाता ) 
और जहाँ हमें एक खुशखबरी देने में १० बार सोचना पड़ता है वही हमारे नेता ४-४, ५-५ खुशखबरी देने को बाध्य कर रहे है। 

और खुशखबरी देने के २-३ साल बाद 
कौनसे स्कूल में डाल रहे हो ? (और गलती से आप पूछ लो की आप ही बताईये, तो तैयार रहिये रायचंदो से निपटने के लिए)

यह तो वो प्रश्न थे जो की दोस्त, रिश्तेदार, पड़ौसी, माँ-बाप, और भाई बहन आपसे पूछते रहते है। इनके तो आप जवाब भी दे सकते हो, तुरंत न सही थोड़ा वक्त लेकर। किन्तु कुछ सवाल ऐसे है जिनका जवाब आजतक नहीं खोजा जा सका है, और कोई जवाब देता भी है तो सीधे सीधे नहीं दे सकता। पहले तो सवाल ही कठीन और दूसरा यह सवाल पूछे जाते है आपकी धर्मपत्नी के द्वारा। याने की करेला वो भी नीम चढ़ा। 

तो दोस्तों पेश के जिंदगी के सबसे बड़े और खतरनाक २ सवाल जिन्होंने लगभग हर इंसान को एक बार तो परेशान किया ही होगा।

१. जानू, मैं सच में मोटी लगती हूँ ? ( सच कहो या झूठ या डिप्लोमेटिक हो जाओ, मेरे ख्याल से चुप रहना ज्यादा बेहतर है। )

और

२. आज खाने में क्या बनाना है ?(बाकी के सवाल तो कभी न कभी पीछा छोड़ ही देते है, परन्तु इस सवाल का हमारे जीवन से वैसा ही नाता है जैसा केजरीवाल का टीवी से, कांग्रेस का घोटालो से और मोदी का माइक से)



ऐसे ही आपके कोई पर्सनल सवाल हो जो इस सूचि में न हो और आपको लगता है की वो भी जीवन के सबसे जटिल प्रश्नो में से एक है तो कमेंट करिये। 

Monday 12 January 2015

नाम में क्या रखा है

"नाम में क्या रखा है ?" शेक्सपियर तो इतना कहके निकल लिए, उनको क्या मालूम था की यहाँ भारत में नाम के पीछे कितना कोहराम है।
स्रोत: गूगल इमेज सर्च 


आजकल के लेखक, पत्रकार, दार्शनिक भी जब कुछ लिखते है तो नायक नायिका के नाम लेने से परहेज करते है। बेवजह का "साम्प्रदयिक" तनाव पैदा हो सकता है इसीलिए कोई नाम नहीं लेता। यहाँ तक की पुलिस थाने में भी रिपोर्ट "अज्ञात" लोगो के नाम की लिखी जाती है, फिर भले ही सबूत के तौर पर पेश किया गया वीडियो चिल्ला चिल्ला के अपराधी का नाम ज़ाहिर कर रहा हो।

खैर इन सब के बारे में आप सब जानते हो, मैं आपको नामो की वजह से होने वाली एक अलग ही वैश्विक समस्या से आपको अवगत कराने की मंशा रखता हूँ। हालाँकि आप में से अधिकांश लोगो को यह समस्या झेलनी पड़ी होगी।

जवान हो, अपने पैरो पर खड़े हो तो घरवाले आप पर सबसे बड़ा दबाव डालेंगे की शादी कर लो, वो भी हो गया तो सालभर के भीतर आप पर एक नया दबाव आ जायेगा, २ से ३ होने का। कहीं कहीं तो मैंने यह भी सुना है की एम्प्लोयी ने इन्ही सब बातों का रोना रोकर अपने मैनेजर को इतना इमोशनल ब्लैकमेल किया की उसको सैलरी हाईक मिल गयी। खैर आप २ से ३ भी हो गए, अब आपके सामने सबसे बड़ी समस्या यह नहीं है की डाइपर कौन बदलेगा, न ही इस बात की चिंता है की रात रात भर जाग के दूध की बोतल कौन भरेगा बल्कि सबसे बड़ी चिंता का विषय है की इस नए मेहमान का नाम क्या रखे ?

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आज के जमाने में "यूनिक" नाम रखने का चलन है। लोग अपने पालतू पशुओ का नाम भी मोती, ब्रूनो, टाइगर या शेरू नहीं रखते बल्कि यूनिक सा अंग्रेजी सा कोई नाम ढूंढ़ते है। बात खुद के बच्चे की हो तो नाम थोड़ा ख़ास ही ढूंढ़ना पड़ता है और ये यूनिक नाम ढूढ़ने पर भी नहीं मिलते। हालांकि कई माँ-बाप तो अपने खुद के नामो के प्रथम २ अक्षरो की संधि करके ही यूनिक नाम बना लेते है।  परन्तु हर पति पत्नी ऐसा नहीं कर सकते तो ऐसे में बेचारा पति सारी  रात इंटरनेट पर सर्च करके कोई "भल्ता सा" ही सही पर यूनिक नाम ढूंढ़ता है तो पत्नी कहती है, नहीं यह नाम तो मेरी मौसी की बेटी के देवर के बच्चे का भी है, कोई "यूनिक" नाम ढूंढो। फिर जाके २-४ "बेबी नेम्स" वाली किताब खरीद के लाते हो, फिर भी मनपसंद नाम तो किसी के भाई के साले के बच्चे का निकलता है तो कोई नाम दोनों पति पत्नियों में से किसी के दोस्त अपने बच्चो को दे चुके होते है । हजारो नाम खारीज़ करने के बाद बड़ी मशक्कत से एक यूनिक नाम आप ढूंढते हो। अब आप सेलिब्रेशन की तैयारी कर ही रहे होते हो की आपके घरवाले जाके किसी पण्डित से बच्चे की कुंडली बनवा आते है और नाम का अक्षर तय हो जाता है की अब नाम तो इसी अक्षर से शुरू होगा। फिर शुरू होती है वही कहानी, गोल गोल धानी और इत्ता इत्ता पानी।



मेरे एक परिचित ने तो यूनिकनेस के चक्कर में कंफ्यूज होके अपने बच्चे का नाम "चमन" रख दिया तो उसके पहले जन्मदिन पर आये मेहमानो ने जैसे तैसे समझाया की कैसे तुम अपने ही बच्चे को उसके बाप का कतल करने के लिए उकसा रहे हो।  अभी अभी मेरे एक बहुत खास और बहुत ही कांग्रेस विरोधी दोस्त ने अपना खुद का ही नाम राहुल से बदल के वरुण रख लिया है।

क्या आप अब भी कहेंगे की नाम में क्या रखा है ? अब तो शेक्सपियर भी अपने शब्द वापस लेने को तैयार होंगे।

Wednesday 7 January 2015

पिके का विरोध - in Cut to cut style


फिल्म "पीके" पर इतनी प्रतिक्रियाएँ, टिप्पणियाँ आ चुकी है मार्केट में की इस पर कुछ भी लिखना क्लीशे होगा। फिर भी आज बैठे बैठे सोचा की क्यों न मैं भी अपनी आपत्ती दर्ज करवा ही दूँ। क्योंकि आजकल अगर किसी न किसी चीज का विरोध न करो तो लोग बेवकूफ समझते है। इसलिए मैं अपना ऑनलाइन प्रोटेस्ट करता हूँ "पीके" के खिलाफ।



इस फिल्म में एक गाना है "बिन पूछे मेरा नाम और पता, रस्मो को रख के परे , चार कदम बस चार कदम चल दो न साथ मेरे" . 

एक फुल टाइम फुल्ली कमिटेड पति होने के नाते इस गाने से मेरी भावनाएं आहात हुयी है जनाब। नायक पहली ही मुलाकात में नायिका को पटाने के लिए गाना गाता है और कहता है की मेरा नाम पता पूछे बिना ही मेरे साथ २-४ कदम चल लो। हद्द है यार, यहाँ अगर हमें शादी करना हो या लड़की पटाना हो तो नाम पता तो ठीक है अपनी जनम कुंडली, बैंक बैलेंस, मंथली इनकम से लेकर अपनी पैथोलॉजी रिपोर्ट्स तक दिखानी पड़ती है और तुम नाम पता भी नहीं बता सकते। फिर अागे कहता है की रस्मो को परे रख दो, बोलो यार यहाँ हम सारी रस्मे, कस्मे और वादें निभाते रहे जीवन भर, और अगर कोई छोटा मोटा वादा न निभा पाये तो सजा भी भुगते। सिर्फ यहीं तक मेरी भावनाएं आहात नहीं हुयी इसके आगें तो नायक कहता है की बस चार कदम चलदो साथ मेरे। कहिये, यहाँ हम सात सात जन्मो की कसम खाके एक ही नायिका के साथ बंधे हुए है और यह हर चार कदम में नयी नायिका चाहता है वो भी बिना कोई कमिटमेंट के, वाह भाई वाह।


बात सिर्फ इतनी ही होती तो जैसे तैसे ठंडा पानी पिके (पीने वाला पिके, फिलम वाला नहीं) हम काम चला लेते परन्तु नायक यहीं रुका नहीं इसके आगे सुनिए।  कहता है बिन कुछ कहे बिन कुछ सुने मेरे साथ चलदो, अब आप ही बताओ आप में से किसकी गर्लफ्रैण्ड या बीवी आपसे बिन कुछ कहे आपके साथ चलने को राजी हो जाती है ? कब हुआ था आखिरी बार ऐसा की आप कही गए हो ४ कदम ही चले हो और वो "चुप" रही हो ?

एक कमिटेड पुरुष होने के नाते हम इस गाने का विरोध करते है साहब। इतना ही नहीं, गाना खत्म होते होते नायिका अंत में कह ही देती है "चार कदम ही क्या, सारी उम्र चल दूंगी साथ तेरे" तब जाकर राहत की साँस लेता हूँ मैं की चलो ये नायिका भी उमर भर चिपकेगी इसके साथ।

वैसे चलते चलते इस गाने के अलावा एक और चीज से मेरी उम्मीदों को ठेस पहुंची है और वो यह की नंगा पुंगा एलियन दोस्त आमिर ही क्यों कटरीना क्यों नहीं ??

Friday 26 December 2014

मॉल की सैर


देखो यार हम बड़े शहरों में रहने वाले लोग है, छुट्टी मिले तो उठ के रिश्तेदारो या दोस्तों के घर नी जा धमकते और ना ही शहर के किसी छोटे मोटे टॉकीज में या बगीचे के चहलकदमी करके आते है। भिया यार हम मॉल जाते है सीधा , क्या समझे ?
नी  समझे तो समझाते है, क्या है की छुट्टियों का मौसम चल रिया है और लोग बाग़  हिल स्टेशन, समुन्दर पे , या किसी रिसोर्ट में अपनी छुट्टियां मना रहे है और सब जगह के होटल मानो ओवरफ्लो हो रहे है। और तो और सडको पे भी जाम लगा पड़ा है तो जो जगह एक दिन में घूम के आ सको वहां भी नी जा सकते। यही बात इस क्रिसमस पे हमने अपनी बेग़म साहिबा को समझाई, जो वो समझ भी गयी(शायद)। लेकिन अब छुट्टी के दिन सारा दिन घर बैठ के बीवी की गालियां भी तो नहीं सुन सकते ना। हमने यह भी समझाया की अभी भीड़ भाड़ वाली जगहों पे नहीं जा सकते, आतंकवादियों का हमला हो सकता है इस लिए आराम से घर पे ही तुम दाल-बाटी बनाओ और अपन टीवी देखते है । इसके बाद तो जो हमला हुआ हम पे उससे तो आतंकवादियों का हमला ही हमें बेहतर लगा सो हम चुपचाप अपनी दुपहिया पे बेग़म को बिठा के निकल पड़े।

अब साब बड़े शहरों में घूमने के लिए ले देकर मॉल ही होता है जहाँ जाके आटे-दाल के भाव पता करके आ जाओ बस।  हम भी गए, क्रिसमस का दिन था, सड़के जाम शहर में भी थी, शायद आधा शहर हमारी तरह होटल का ओवरफ्लो देख के कही नहीं गया था। मॉल पहुंचे तो गेट के बाहर इतनी भीड़ थी मानो भीतर माता रानी का भण्डारा चल रहा हो। ऐसी भीड़ तो यार भिया हमने अपने इंदौर में १५ अगस्त और २६ जनवरी को चिड़ियाघर के बाहर ही देखी थी अब तक क्योंकि साल के इन २ दिनों को मुफ्त एंट्री होती है । जैसे तैसे हिम्मत करके हम अपनी दुपहिया और उसपे बैठी हमारी बेग़म को धकेलते हुए पार्किंग के गेट तक पहुंचे और २० रुपये का टिकिट कटा के तलघर में जगह ढूंढ के दुपहिए को टिका दिए।

मॉल के अंदर घुसे तो पाया की  जिधर देखो उधर लोगो की भीड़ ही भीड़, वाइफ बोली " लो देखो जब सारा शहर पहाड़ो पे, समुन्दरो पे घूमने गया तो यहाँ क्या ये भूत घूम रहे है ? " हमने थोड़ा झेम्प के कहा की भई शहर की पापुलेशन ही बहुत है क्या करे। आगे बढे तो देखते है की लोगो के हाथो में शॉपिंग की थैलियों की जगह कैमरा था, जिसे देखो वो अपने हाथो में कैमरा लिए क्लिक क्लिक किये जा रहा था, किसी के हाथो में अमेरिका से आने वाले दोस्तों से मंगाया हुआ सस्ता DSLR था तो किसी के हाथो में उन्ही अमरीकी रिटर्न दोस्तों से मंगाया हुआ  महंगा आईफोन था। इन सब कैमरामैन को देख के ऐसा लग रहा था की सब किसी जंगल में जानवरो के साथ अपनी फोटो खिंचाने आये हो या किसी दरिया किनारे बर्ड वाचिंग करने।  खैर सही भी था कुछ लोग सच में अपने लम्बे लम्बे ज़ूम कैमरों से "बर्ड वाचिंग" ही कर रहे थे। दिसंबर की ठण्ड और मॉल का AC भी किसी काम का न था, इतनी "हॉटनेस" बिखरी पड़ी थी मॉल में।

अपने हाथो में न तो शॉपिंग बैग था न कोई कैमरा, था तो सिर्फ अपनी इकलौती बीवी का हाथ और उसका प्यारा साथ, बस उसी को जकड़े हुए हम उस भीड़ भड़ाके में घूमते रहे। एस्कलेटर पर ऊपर चढ़ते हुए अचानक से एक अनाउंसमेंट हुआ " मि. रोहित आप जहाँ कहीं भी है तुरंत हेल्प डेस्क के पास आये यहाँ आपकी बीवी मिसेज़ नेहा आपका वैट कर रही है " और एक बार नहीं २-३ बार यह उद्घोषणा की गयी। हमें तो उस बेचारे रोहित पर तरस आने लगा की कही वो "बर्ड वाचिंग" के चक्कर में अपनी बीवी से भटक न गया हो, और भटक के अब मिल भी गया तो अब उसका घर पहुंच के क्या हाल होगा ? क्या वो सही सलामत घर पहुंच भी पायेगा, उसकी बीवी नेहा उसका क्या हाल करेगी ? यह सब सोच सोच के हमारे रोंगटे खड़े हो रहे थे और हमने अपनी बीवी का हाथ कस के पकड़ लिया। उसने एक प्यारी से स्माइल देते हुआ धीरे से कहा "हाउ रोमेंटिक …… आपने सरे आम मेरा हाथ यूँ पकड़ा", हमने भी वही स्माइल उन्हें लौटाते हुए हाँ में मुंडी हिला दी। उन्हें क्या पता की हमने इतना कस के हाथ पकड़ा इसके पीछे कोई रोमेंटिक ख्याल नहीं भयानक वाली फीलिंग थी। खैर आगे बढ़ते हुए दुकानो पे नज़र दौड़ाते हुए हलकी फुलकी बर्ड वाचिंग हमने भी कर ही ली।


इतना घूमने के बाद अब भूख सी लग पड़ी थी सो हमने सोचा क्यों न थोड़ा बहुत यहीं कुछ खा लें, हालांकि यहाँ मॉल का खाना होता तो अपने बजट से बाहर ही है पर फिर भी थोड़ा सा "चख" लेंगे। यही सोच के फ़ूड कोर्ट पहुंचे तो देखते है की यहाँ भी लोग ऐसे टूटे पड़े है दुकानो पे जैसे फोकट में बँट रहा हो, बैठने तक की जगह नहीं, जहाँ मिले वंही टिक के जो मिला वही ठूंसे जा रहे थे सभी। हमने "सब वे बर्गर" वाले के बाहर निचे बालकनी की रेलिंग की सीढ़ी पर लोगो को बर्गर खाते देखा तो इंदौर के अन्नपूर्णा और खजराना मंदिर की याद आ गयी, वहां भी ऐसे ही लोग सीढ़ियों पे बैठ के जो मिले वो खाते दिख जायेंगे। बस फर्क इतना सा है की वहाँ वो लोग जेब से एक फूटी कौड़ी नहीं निकालते और यहाँ यह लोग सैकड़ो रुपये देके खा रहे है।

थोड़ी ही देर में हम दोनो भी ऐसे ही रेलिंग की सीढ़ी पर बैठ कर अपना बर्गर खा रहे थे या यूँ कहे की "चख" रहे थे तभी एक और उद्घोषणा हुयी की "मिस्टर केशव रंजन आप जहाँ कहीं भी है तुरंत हेल्प डेस्क काउंटर पर आये, यहाँ आपकी वाइफ मिसेज़ कृति रंजन आपका वैट कर रही है"




नोट :  चित्र फ़ीनिक्स मॉल, पुणे के फेसबुक पेज से साभार लिए गए है। 


Wednesday 17 December 2014

हैप्पी न्यू ईयर


वर्ष २०१४ संपन्न होने जा रहा है। हर साल की तरह यह साल भी बहुत सारी बातो के लिए याद किया जायेगा। इस साल आपके जीवन में भी तो कुछ ऐसा घटित हुआ ही होगा जिसे आप भूल नहीं पाओगे।

आईये इससे पहले की दुनिया भर के टीवी चैनल्स बीते हुए साल का एनालिसिस करे हम भी कुछ चिर-फाड़ कर डालते है थोड़े कट-टू-कट अंदाज़ में।

हम भारतियों की एक बात तो छुपाये नहीं छुपती और वो है बॉलीवुड और क्रिकेट प्रेम, तो चलिए इस बीते साल का मुआईना करते है इसी साल रिलीज़ हुई बॉलीवुड फिल्मो के "टाइटल" के आधार पर।

हम लेकर आये है कुछ चुनिंदा फिल्मे जिनके टाइटल इस साल के महत्वपूर्ण इवेंट्स को समर्पित है।


१. टोटल सियापा 

साल की शुरुआत हुई एक फिल्म "टोटल सियाप्पा" से जो की समर्पित है " आम आदमी पार्टी" और केजरीवाल साब को जिन्होंने इस साल सियाप्पे के सिवा कुछ नहीं पटका। पहले दिल्ली में उम्मीद बंधवाई फिर उस बंधी हुई उम्मीद को छोड़ के लोकसभा के पीछे भागे और फिर लौट के दिल्ली में सियाप्पे किये जा रहे है।


२. जय हो 
अगली है सलमान की फिल्म  "जय हो"  और यह फिल्म बहुत कुछ हद तक नरेंद्र मोदी की तरफ इशारा करती है  जिनके लिए इस साल हर जगह एक ही नारा गूंजा है और वो है "जय हो।" न केवल मोदी बल्कि भारतीय खेल जगत ने भी इस साल कॉमनवेल्थ और एशियन गेम्स में "जय हो" का नारा लगवाया।  यही नहीं जय हो का टाइटल हमारे देसी नासा याने की इसरो को भी मिलता है जिन्होंने इस साल दुनिया का सबसे सस्ता मंगलयान अंतरिक्ष में छोड़ा।


३. बेवकूफियां 
जी हाँ यह फिल्म समर्पित है हमारे देश के प्यारे राहुल गांधी को जिन्होंने इस साल भी अपने हर भाषण में कुछ ऐसा किया और कहा जिससे इनकी बेवकूफियों के पुराने रिकॉर्ड भी ध्वस्त हो गए।


४. दावत-ऐ-इश्क़ 
हमारे प्रधानमंत्री ने प्यार का सन्देश देने के लिए अपनी शपथ ग्रहण समारोह में सारे पड़ौसी देशो को दावत दी थी और इस दावत का एक ही उद्देश्य था की आपसी तकरार कम हो और प्यार बढे।  इसीलिए परिणीति चोपड़ा की फिल्म का टाइटल इस शपथ ग्रहण समारोह को दिया जाता है।

५ . २ स्टेट्स 

आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जो की पहले संयुक्त राज्य हुआ करते थे इसी साल १ से २ स्टेट्स बन गए और इसीलिए इस साल की इस हिट फिल्म का टाइटल समर्पित है इन राज्यों को।


६ . क़्वीन 
दर-असल यह टाइटल हमारे देश के किंग के लिए है मेरा मतलब हमारे प्रधानमंत्री के लिए है , जिस तरह से फिल्म में नायिका अपने हनीमून पर अकेली विदेश यात्राओ पर निकल पड़ती है ठीक उसी प्रकार इस साल हमारे पी. एम साब ने भी ताबड़तोड़ विदेश यात्रायें करी है और वो भी अपनी सरकार के हनीमून पीरियड में। इसीलिए यह टाइटल जाता है हमारे पी.एम. साब को।

७ . गुलाब गैंग 

आप सबने रोहतक की घटना तो सुनी ही होगी, और इस घटना के कितने सारे पहलु सामने आये यह भी आप जानते होंगे। इस घटना का सच जो भी हो किन्तु उन दो बहनो के लिए माधुरी दिक्षित अभिनीत फिल्म का टाइटल "गुलाब गैंग" हम जरूर इस्तेमाल कर सकते है।

८ . गुंडे 

यह शीर्षक और इसके कई पर्यायवाची शीर्षक से हर साल फ़िल्मे आती है और हर साल देश दुनिया में कितनी ही हरकते ऐसी होती है जिनके लिए यह टाइटल बना है। किसी विशेष घटना या विशेष अपराधी को यहाँ अपने लेख में जगह देकर उसको यह टाइटल समर्पित नहीं करूँगा।  बस इतना कहूँगा की आप इस किसी की भी हरकतों को नजरअंदाज न करे क्योंकि हम जिन लोगो  की  छोटी छोटी गलतियों को नज़रअंदाज करते रहते है वही लोग आगे चलकर "गुंडे" बनते है।


९   . क्या दिल्ली क्या लाहोर 

हर साल की तरह इस साल भी बनते बिगड़ते रिश्तो के बीच दोनों देशो की जनता सिर्फ यही कहती रह गयी की साब अब तो क्या दिल्ली क्या लाहोर। यह फिल्म का शीर्षक समर्पित है भारत-पाकिस्तान के रिश्ते को।

१०   .हेट स्टोरी -२ 

इस फिल्म का टाइटल दिया जाता है हमारे देश के कई सारे नेता/वक्ताओं/धर्म के ठेकेदारो को जो हर साल की तरह इस साल भी अपनी ज़हरीली वाणी से समाज में नफरत का विष घोलने से पीछे नहीं हटे। हम आशा करते है की हेट स्टोरी २ से अब हेट स्टोरी ३-४-५ इत्यादि न बने इस देश में।

११  . अमित साहनी की लिस्ट 

जी इस टाइटल को हम थोड़ा इस प्रकार कह सकते है "भारत सरकार की लिस्ट" जो की समर्पित है उस लिस्ट को जिसमे  ६२७ वो नाम है "जिनका नाम नहीं लेते" मेरा मतलब है जिनका नाम कोई नहीं लेता।  यह वो नाम है जिनका असीमित धन देश के बाहर की तिजोरियों में जमा है, जी जनाब मैं काले धनवानों की लिस्ट का जिक्र कर रहा हूँ।

चलिए हंसी मजाक बहुत हुआ, देश दुनिया के परिदृश्य में इस साल बहुत उथल पुथल हुई और हर घटना को महज एक बॉलीवुड फिल्म के टाइटल से प्रदर्शित करना आसान नहीं है। जब कही कुछ अच्छा होता है तो कही बहुत अच्छा भी होता है और जब कही कुछ बुरा होता है तो कही बहुत बुरा भी होता है।
फिल्मो की इस लिस्ट की अंतिम फिल्म का टाइटल हमने कुछ बहुत बुरे को प्रदर्शित करने के लिए इस्तेमाल किया है। हालांकि फिल्म बहुत बुरी नहीं है हम सिर्फ इसका टाइटल इस्तेमाल कर रहे है।

१२  . बैंग - बैंग 

इस साल भी भारत पाकिस्तान सीमा पर, नक्सली क्षेत्रो में और उत्तर-पूर्वी राज्यों में भीषण गोलीबारी और बम धमाके हुए जिनमे सैकड़ो निर्दोष लोगो और सैनिको की जाने गयी।  यही नहीं पुरे विश्व में अमरीका से लेके ऑस्ट्रेलिया और इराक़ से लेके पाकिस्तान तक हर जगह आतंकवादियों ने कहर बरपाया।  ईश्वर से प्रार्थना है की इस साल की समाप्ति के साथ ही ये बैंग बैंग भी समाप्त हो जाये और अगला साल पुरे विश्व के लिए "हैप्पी न्यू ईयर" बन के आये इसी के साथ अब हम इस लेख की "हैप्पी एंडिंग" करते है और आपको आने वाले साल के लिए ढेरो शुभकामनायें देते है ।
और आप लेख पर अपनी प्रतिक्रियाएं अवश्य ज़ाहिर कीजियेगा।
जय हिन्द।

नोट: कुछ फिल्मे सिनेमा स्क्रीन के साथ ही हमारे ज़ेहन से भी उतर जाती है इसीलिए हमने यहाँ उनके पोस्टर्स भी चिपकाएं है ताकि आपको याद आजाये की हम किस फिल्म की बात कर रहे है।  सभी चित्र गूगल इमेज सर्च के सौजन्य से। 




Friday 12 December 2014

कांग्रेस मुक्त भारत




अभी अभी कुछ दिनों पहले सुनने में आया था की हैदराबाद के हवाई अड्डे  का नाम "राजीव गांधी हवाई अड्डे "  से बदल कर N.T.रामाराव  हवाई अड्डा रख दिया गया है। खबर सुनकर राजनितिक गलियारों में हड़कम्प मच गया था , खासकर कोंग्रेसियों के तो पेट ज्यादा खराब हो गए। वैसे भी कोंग्रेसियों के पास है ही क्या "इन ३ नाम" के अलावा ?

खैर जब इस खबर को खंगाला गया तो मेरे ख़ुफ़िया सूत्रों ने जो बात बताई वो बड़ी ही चौंकाने वाली है, हाँ आप भी चौंक जाओगे , दर-असल हवाई अड्डे का नाम बदलने के पीछे मोदी जी का हाथ है , जी हाँ भाई साब पुख्ता खबर है।  कुछ महीनो पहले के उनके भाषणो को याद करो तो आपको याद आएगा की मोदी जी ने हर जगह लगभग हर दिन एक नारा जोर जोर से लगाया था और वो था "कांग्रेस मुक्त भारत" का नारा।

आदरणीय केजरीवाल जी ने भी अपनी मुहर लगा दी है  इन सब के पीछे मोदी जी और अडानी /अम्बानी का हाथ है , एक गजेटेड ऑफिसर के द्वारा अटेस्टेड होने पर यह खबर और भी पुख्ता बन गयी है।

अब देश में कांग्रेस के पास ले देकर पूर्वजो (जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी) के नाम के अलावा कुछ बचा नहीं , और अगर कांग्रेस को जिन्दा रखना है तो इन नामो को जिन्दा रखना होगा, इसीलिए सोच समझ कर पिछली कांग्रेस सरकारों ने देश में ४५० से ज्यादा सरकारी योजनाओ,  भवनो, सडको , विश्वविद्यालयों इत्यादि के नाम इन तीन लोगो के नाम पर ही रखे है , ताकि इनके नाम पर ही सही लोग कांग्रेस को "कुछ अच्छे" के लिए याद रख सके।

Pic Courtesy  A Suryaprakash


किन्तु मोदी जी ने तो देश को कांग्रेस मुक्त करने की मानो शपथ सी ले रखी है। इसीलिए यह शुरुआत है की सबसे पहले सरकारी योजनाओ को गांधी-नेहरू परिवार के नाम से मुक्त किया जाये, फिर धीरे धीरे एयरपोर्ट, पोर्ट , स्टेडियम, सड़क, चौराहो और विश्विद्यालयों के नाम से नेहरू-गांधी हटाया जायेगा।

हैदराबाद में एयरपोर्ट का नाम बदल के कुछ हद तक कांग्रेस मुक्त भारत की और एक कदम उठा लिया है मोदी सरकार ने।  हमारे ख़ुफ़िया सूत्रों ने तो यहाँ तक खबर दी है की जल्द ही सरकार एक विधेयक लाने  वाली है जिसके तहत देश में जिसका भी नाम राजीव, राहुल, सोनिया, प्रियंका या रॉबर्ट (वैसे भी आजकल जवाहर, और इंदिरा नाम कोई नहीं रखता) होगा उसको सरकारी सुविधाओं से वंचित रखा जायेगा, उन्हें अपना नाम बदलना होगा। यही नहीं किसी ने अपने बच्चे का नाम इनमे से कुछ रखा तो उसे जन्म प्रमाण पत्र, आधार कार्ड, पैन कार्ड, या पासपोर्ट जारी नहीं किया जायेगा।  यह सब महत्त्वाकांक्षी योजनाएं अभी मोदी सरकार के मंत्रीगण  बना रहे है और जल्द ही इन्हे मोदी जी के समक्ष प्रस्तुत करके वाह वाही लूटने की तैयारी में है।

तो दोस्तों तैयार हो जाओ कांग्रेस मुक्त भारत के लिए।  अरे अरे.…………  अभी अभी एक और ख़ुफ़िया खबर आयी है की दिग्विजय सिंह ने राहुल गांधी को सुझाओ दिया है की वो "गांधी" सरनेम का पेटेंट कांग्रेस के नाम पे रजिस्टर करवा के कॉपी राइट लेले ताकि कोई और इसका फायदा न उठा सके।  सुना है की राहुल बाबा ने बात को मानते हुए अर्ज़ी दे दी है।  अगर ऐसा हो जाता है तो गांधी सरनेम वाले सभी लोग कांग्रेस की अधिसंपत्ति माने जायेंगे, .......ओह्ह्ह ...... फिर मेनका और वरुण का क्या होगा ?

खैर जो भी हो आप हमारे साथ लगातार लगातार बने रहिये, आपको लेटेस्ट अपडेट के साथ सरकार के अंदर की खबर देने फिर आएंगे, तब तक के लिए गुड नाईट।

डिस्क्लेमर: उपरोक्त लेख लिखते समय लेखक ने ४ बोतल वोडका अपने गले में उँडेली हुयी थी और उसकी टेबल पर ४ रैपर भांग की गोली के भी पाये गए थे। और जब तक मैंने यह लेख ब्लॉग पर डाला तब तक भी लेखक को होश नहीं आया था।




Thursday 4 December 2014

एक बंधुआ मज़दूर की कहानी

 क्या आप भगवान या भाग्य में यकीन रखते है ?

आप कहोगे की आज यह कौनसी बेतुकी बात कर रहे हो , खुद की मेहनत और हुनर के सिवा किसी पे यकीन करना बईमानी है। पढ़े लिखे नवजवान जो ठहरे आप, ऐसा ही सोचना होगा आपका, है ना ? अब भइया हम आपको एक सच्ची घटना पर आधारित कहानी सुना रहे है,  मतलब पढ़वा रहे है।  इसको पढ़कर आपको यकीन हो जायेगा की गरीब, ईमानदार और मेहनती लोगो को उनका ईश्वर उन्हें न्याय जरूर दिलाता है।

यह घटना मध्यप्रदेश  के एक छोटे से गाँव की है, गाँव मे अधिकांश लोग किसान है और सब के सब बड़े किसान है और उँची जाती से है तो ज़ाहिर सी बात है की खेतो में काम करने के लिए मज़दूर मिलना बहुत मुश्किल होता होगा किसानो के लिए। इसीलिए मज़दूरी के लिए बाहर से लोगो को लाया जाता है और अपने खेत पर रख कर साल भर काम करवाया जाता है।

ऐसे ही एक बड़े किसान परिवार जिसका मुखिया है रामप्रसाद ने मध्यप्रदेश के नीमाड क्षेत्र से एक मजदूर परिवार जिसका मुखिया है मोहनलाल  को अपने यहाँ लगभग बंधुआ मजदूर की हैसियत से रखा हुआ था। नाम मात्र का वेतन और खूब सारा काम करवाया जाता था उनसे. मोहन का परिवार भी इसी बात से खुश था की कम से कम २ वक़्त की रोटी तो मिल रही है पूरे परिवार को नही तो अपने क्षेत्र मे ना तो बारिश है ना ज़मीन ही इतनी उपजाऊ की कुछ काम मिल सकता।



गाँव हो या शहर, किसान हो या उद्योगपति, कॉम्पीटिशन के इस समय मे हर कोई अपने प्रतिद्वंदी को निचा करने का मौका ढूंढता है।  इसी गाँव के दूसरे किसान परिवार ने जिलाधीश कार्यालय में रामप्रसाद की शिकायत लगा दी।  शिकायत पर जिला कलेक्टर ने मोहन के  परिवार को बंधुआ मजदूर घोषित कर गाँव से रिहा कर के उनको वापस अपने गाँव भिजवा दिया।

अभी यहाँ पर सवाल यह है की सरकारी कायदो के मुताबिक कलेक्टर ने सही किया या मानवीय आधार पर गलत किया ?खैर जो भी हो , अभी एक परिवार बेरोज़गार हो गया था और दूसरी तरफ एक बड़े किसान की फसल पर विपरीत असर होने आया था।  सरकारी कायदो के मुताबिक बाहर के व्यक्ति को "जबरदस्ती" अपने खेत पर कम वेतन पर रखना और काम करवाना "बंधुआ मज़दूरी" की श्रेणी में आता है।

किसान परिवार के मुखिया रामप्रसाद ने पुनः उस मोहन के  परिवार को अपने  गांव में बुला लिया और इस बार उसको गांव का स्थाई निवासी बना लिया, याने की  उसके राशन कार्ड, वोटिंग कार्ड इत्यादि उसी गांव के बनवा दिए।  अब मोहन इसी गांव का निवासी हो गया और दिहाड़ी मज़दूरी पर रामप्रसाद के यहाँ काम करने लगा। 

६ महीने बाद गांव के पंचायत के चुनाव के समय इस गांव की सीट अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवार के लिए आरक्षित घोषित की गयी। और इस बार गांव को बगैर चुनाव के ही सरपंच मिल गया।  पुरे गांव में केवल एक ही परिवार था जो अनुसूचित जनजाति का था और जिसके पास गांव के स्थाई निवासी होने के वैध कागज़ भी थे।
जी हाँ दोस्तों, वो था मोहन का परिवार। और हाँ अब मोहन को उस गांव में मज़दूर नहीं मोहन सरपंच के नाम से जाना जाता है।

तो अब बताईये की यहाँ भाग्य ने अपना खेल खेला की नहीं ??



देश भक्ति

  देश भक्ति , यह वो हार्मोन है जो हम भारतियों की रगो में आम तौर पर स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस  या भारत पाकिस्तान के मैच वाले दिन ख...